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पञ्चमः खण्डः का० ६३
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मानसः। अयममनोज्ञसंप्रयोगः 'कथं नाम मे न सम्पद्यत इति संकल्पप्रबन्ध आर्त्तध्यानम् कृष्णनील- कापोतलेश्याबलाधायकं प्रमादाधिष्ठानम् आप्रमत्तगुणस्थानात् तिर्यग्मनुष्यगतिनिर्वर्त्तकम् उत्कर्षापकर्षभेदात् क्षायोपशमिकभावरूपं परोक्षज्ञानरूपत्वात् ।
एवं रुद्रे भवं रौद्रम् हिंसाऽनृत- स्तेय - संरक्षणाऽऽनन्दभेदेन चतुर्विधम् । तत्र हिंसायामानन्दो रुचिर्यस्मिन् तद् हिंसानन्दम् एवमुत्तरत्रापि योज्यम् । एतदपि बाह्याध्यात्मभेदाद् द्विविधम् । परुषनिष्ठुर - वचनाक्रोश - निर्भर्त्सन- ताडन - परदारातिक्रमाऽभिनिवेशादिरूपं बाह्यम् । स्व- पराभ्यां स्वसंवेदनानुमानगम्यं बाह्यम्। आध्यात्मिकं हिंसायां संरम्भ - समारम्भादिलक्षणायां नैर्घृण्येन प्रवर्त्तमानस्य संकल्पाध्यवसानम्-संकल्पश्चिन्ताप्रबन्धस्तस्याऽध्यवसानम् तीव्रकषायानुषक्तत्वं प्रथमं हिंसानन्दं नाम । परेषामनेकप्रकारैर्मिथ्यावचनैर्वञ्चनं प्रति संकल्पाध्यवसानं मृषानन्दं नाम । परद्रव्यापहरणं प्रत्यनेकोपायैर्यत् "तत् स्तेयानन्दम् । परिग्रहे ' मम एव इदं स्वम् अहमेवास्य स्वामी' इत्यभिनिवेशः, तदपहर्तृविघातेन वैषम्य से जो परिणाम उत्पन्न होता है वह शारीरिक पहला है। दूसरा मानसिक है जो भय, विषाद, अरति, शोक, जुगुप्सा और मन की बुराई से होता है । यहाँ जो अनिष्ट संयोग है वह आर्त्तध्यानात्मक 'यह चीज कैसे दूर टले – या मेरे पास फटके ही नहीं' ऐसी संकल्पना - परम्परारूप होता है यही आर्त्तध्यान है। आर्त्तध्यान का परिणाम कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या - तीनों अशुभ लेश्या के बल को पुष्ट करने वाला है। प्रमाद - आलस्य का नित्यस्थान है । छट्ठे गुणस्थान तक वह हो सकता है। ऐसे आर्त्तध्यान से तिर्यञ्च या मनुष्यगति कर्म का बन्ध होता है । इस में तर - तमभाव से अनेक भेद होते हैं । यह आर्त्तध्यान परोक्षज्ञानसंततिस्वरूप होने से क्षायोपशमिकभावात्मक है । ( मोहनीयकर्म का औदयिक भाव है। इतना याद रखना । ) * रौद्रध्या : स्वरूप एवं भेद
रुद्र स्वभाव में होने वाले ध्यान को रौद्र कहा जाता है । उस के चार भेद हैं – हिंसानन्द, मृषानन्द, स्तेयानन्द और संरक्षणानन्द । आनन्द यानी रुचि । जिसके रहते हुए हिंसा में आनन्द यानी रुचि होती है यही हिंसानन्द रौद्रध्यान परिणाम है। बाह्य और अभ्यन्तर ऐसे इस के दो भेद हैं। बाह्य . कठोर एवं निष्ठुर भाषण करना, किसी के ऊपर आक्रोश करना, किसी को धुत्कारना, मारपीट करना, परस्त्री पर जुल्म करना, अति कदाग्रह यानी मिथ्या अभिनिवेश रखना यह सब बाह्य रौद्रध्यान, हिंसानन्द का भेद है । रौद्रध्यानी का यह बाह्य परिणाम उस के लिये स्वसंवेदनसिद्ध है, दूसरों के लिये अनुमानगम्य है। अभ्यन्तर :- संरम्भ और समारम्भ स्वरूप हिंसा में निर्दयता से प्रवृत्ति करते समय जो चिन्तासंतानात्मक संकल्प का अध्यवसाय रहता है यह अभ्यन्तर भेद है । हिंसानन्द रौद्रध्यान में अति उग्र कषायों का अनुषंग रहता है ।
मृषानन्द अनेक प्रकारों से जूठ बोल कर दूसरे लोगों को कैसे ठगना- इसी के संकल्प का अध्यवसाय यह मृषानन्द रौद्रध्यान है ।
स्यानन्द :- परकीय धन-सम्पत्ति आदि की चोरी का ही संकल्प - संतान अध्यवसाय यह स्तेयानन्द रौद्रध्यान है।
संरक्षणानन्द :- यह सम्पत्ति सिर्फ मेरे अकेले की ही है, मैं ही एकमात्र उस का मालिक हूँ- इस प्रकार का अभिनिवेश यह संरक्षणानन्द रौद्रध्यान है । इस में अपहरण करने वाले को मार कर भी अपनी
*. ‘संकल्पाध्यवसानम्' इत्यत्राध्याहारो गम्यः ।
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