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________________ ३०८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् संरक्षणं प्रति संकल्पाध्यवसानं संरक्षणानन्दम् । चतुर्विधमप्येतत् कृष्णादिलेश्याबलाधायकम् प्राक् प्रमत्तगुणस्थानात्, प्रमादाधिष्ठानं कषायप्राधान्यादौदयिकभावरूपं नरकगतिफलनिर्वर्त्तकम् । पापध्यानद्वयमपि हेयम् । ___ उपादेयं तु प्रशस्तं धर्म-शुक्लध्यानद्वयम् । तत्र पर्वतगुहा-जीर्णोद्यान-शून्यागारादौ मनुष्याद्यापातविकलेऽवकाशो मनोविक्षेपनिमित्तशून्ये सत्त्वोपघातरहिते उचिते शिलातलादौ यथासमाधानं विहितपर्यङ्कासन ऊर्ध्वस्थानस्थो वा मन्दमन्दप्राणाऽपानप्रचारः - अतिप्राणनिरोधे चेतसो व्याकुलत्वेनैकाग्रताऽनुपपत्तेः – निरुद्धलोचनादिकरणप्रचारो हृदि ललाटे मस्तकेऽन्यत्र वा यथापरिचयं मनोवृत्तिं प्रणिधाय मुमुक्षुर्ध्यायेत् प्रशस्तं ध्यानम् । तत्र बाह्याध्यात्मिकभावानां याथात्म्यं धर्मः तस्मादनपेतं धर्म्यम् । तच्च द्विविधम् बाह्यमाध्यात्मिकं च। सूत्रार्थपर्यालोचनम् दृढव्रतता शीलगुणानुरागः निभृतकायवाग्व्यापारादिरूपं बाह्यम्, आत्मनः स्वसंवेदनग्राह्यमन्येषामनुमेयम् । आध्यात्मिकं तत्त्वार्थसंग्रहादौ चातुर्विध्येन प्रदर्शितं संक्षेपतः। अन्यत्र सम्पत्ति की सुरक्षा करने का तीव्र अशुभ अध्यवसाय होता है। यह चार भेदवाला रौद्रध्यान, कृष्ण-नील-कपोत तीन अशुभ लेश्याओं का बलवर्धक है; प्रमत्त गुणस्थान के पहले ही होता है (यानी पाँच गुणस्थानक तक होता है। गुणस्थानक्रमारोह ग्रन्थ में तो प्रमत्तगुणस्थान में आर्त्त-रौद्र की मुख्यता व्याख्यामें कही गयी है।) यह रौद्रध्यान प्रमाद का ही अधिष्ठान है। इस में प्रधानता कषायों की होती है इस लिये यह औदयिक भावस्वरूप होता है। नरकगति इस का फल है। आर्त और रौद्र दोनों अशुभ ध्यान पापमय होने से, उन से दूर रहना ही श्रेयस्कर है। * प्रशस्त ध्यान का प्रयोगविधि* प्रशस्त ध्यान आत्महितकर होने से उपादेय है, उस के दो भेद हैं - धर्मध्यान और शुक्लध्यान। मुमुक्षु यानी मोक्षाभिलाषी जीव प्रशस्त ध्यान में प्रयत्न करता है। वह ध्यान के लिये ऐसा स्थान चुन लेता है जहाँ मनुष्य-पशु आदि का संचार न हो, मन को विक्षिप्त करने वाला कोई निमित्त उपाधिभूत न हो, जीवों का उपमर्दन का जहाँ सम्भव न हो। प्रायः ऐसा स्थान पर्वत की गुहा, जीर्ण-त्यक्त उद्यान अथवा शून्यगृह आदि हो सकते हैं। ऐसे स्थानों में कोई बैठने लायक शिलाखण्ड हो तो प्रमार्जन कर के उस के ऊपर पर्यङ्कासन या अपने मन का समाधान रहे वैसे किसी एक आसन में ध्याता बैठ जाता है, अथवा काउस्सग मुद्रा में खडा भी रह सकता है। श्वास-उच्छ्वास की गति मन्द रखता है। यदि वह समूचा श्वासनिरोध कर दे तो मन व्याकुल हो जाय, फिर एकाग्रता नहीं रहेगी। ध्याता अपने चक्षु आदि क्रियाओं का पूर्ण निरोध कर लेता है। तथा मनोवृत्ति को ललाटदेश में या मस्तक में, या अपने अभ्यास के अनुसार कहीं भी स्थापित कर लेता है और इस ढंग से वह प्रशस्त ध्यान में मग्न होता है। * धर्मध्यान : स्वरूप, बाह्य-अभ्यन्तर भेद * धर्मध्यान :- बाह्य और आध्यात्मिक भावों का जो अपना अपना स्वभाव-परिणाम, यह धर्म है। ऐसे धर्म से अनुषक्त हो उसे धर्म्य कहा जाता है (और धर्म भी।) धर्मध्यान के दो भेद हैं, बाह्य और आध्यात्मिक । सर्वज्ञभाषित सूत्रों का उन के अर्थ के साथ परामर्श करना, व्रतो में दृढता को धारण करना, शील जैसे उत्तम गुणों के प्रति हृदय से झुकाव होना, मन-वचन-शरीर की क्रियाओं को नियन्त्रित रखना - ये सब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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