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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
तन्निमित्तः सकषायस्यात्मनः कर्मवर्गणापुद्गलैः संश्लेषविशेषो बन्धः । स च सामान्येनैकविधोऽपि प्रकृति- स्थित्यनुभाग- प्रदेशभेदेन चतुर्धा । पुनरेकैको ज्ञानावरणीयादि - मूलप्रकृतिभेदादष्टविधः । पुनरपि मत्यावरणाद्युत्तरप्रकृतिभेदादनेकविधः । अयं च कश्चित् तीर्थकरत्वादिफलनिर्वर्त्तकत्वात् प्रशस्तः, अपरश्च नारकादिफलनिर्वर्त्तकत्वादप्रशस्तः, प्रशस्ताऽप्रशस्तात्मपरिणामोद्भूतस्य कर्मणः सुख-दुःखसंवेदनीयफलनिर्वर्त्तकत्वात् ।
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* जैनमतप्रसिद्धध्यानचतुष्टयनिरूपणम् *
अप्रशस्तश्चात्मपरिणामो द्विविधः आर्त्त - रौद्रभेदात् । आमुहूर्त्तस्थायी आक्रन्दन - -विलपन- परिदेवनशोचन - परविभवविस्मय - विषयसंगादिकश्च स्वसंवेद्य आत्मनः अनुमेयश्च परेषाम् क्लिष्टः परिणामविशेषः आर्त्तध्यानशब्दवाच्यो बाह्यः । आभ्यन्तरश्चाऽमनोज्ञसंप्रयोगानुत्पत्त्यध्यवसानम् उत्पन्नस्य च विनाशाध्यमनोज्ञसंप्रयोगस्योत्पत्तिकल्पनाध्यवसायः उत्पन्नस्याऽविनाशसंकल्पाध्यवसानमित्येतत्
चतुर्विधमार्त्तध्यानम् । अमनोज्ञसंप्रयोगश्च बाह्याध्यात्मजत्वेन द्विधा । शीताऽऽतप - व्यालादिजनितो बाह्यः, वात-पित्त-श्लेष्मादिप्रादुर्भूतोऽभ्यन्तरः शारीरः, भय-विषादारति-शोक- जुगुप्सा-दौर्मनस्यादिप्रभवो * बन्ध - पदार्थ का निरूपण और प्रकार
आस्रवों की वजह से कषायपरिणत आत्मा का कर्मवर्गणा के पुद्गलों के साथ जो एक विशिष्ट प्रकार का आश्लेष (संयोजन) होता है उसे बन्ध कहा जाता है । सामान्यतया बन्ध का एक ही प्रकार है, विशेषतया चार प्रकार हैं प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभाग (रस) बन्ध और प्रदेशबन्ध । एक एक के ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि आठ भेद हैं। तथा ज्ञानावरण के मतिज्ञानावरण आदि पाँच भेद, दर्शनावरण का चक्षुर्दर्शनावरण आदि ९ भेद... इस प्रकार बहुत से भेद - प्रभेद कर्मग्रन्थ शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं । तीर्थकरत्वलक्ष्मी आदि फल निपजाने वाले कुछ कर्मबन्ध के भेद प्रशस्त कहे जाते हैं, नर्कवेदना आदि फल निपजाने वाले कुछ कर्मबन्ध के भेद अप्रशस्त कहे जाते हैं। शुभाशुभ कर्मबन्ध का मूल है आत्मा का शुभाशुभपरिणाम, और उस से बाँधे गये कर्मों से सुखसंवेद्य एवं दुःखभोग्य फलों की प्राप्ति होती है।
* आर्त्तध्यान का स्वरूप एवं चार भेद *
आत्मा के अप्रशस्त परिणाम के आर्त्त और रौद्र दो भेद हैं। आर्त्त परिणाम के लिये जैन शासन में आर्त्तध्यान शब्द का भी प्रयोग किया जाता है । उस के दो भेद हैं बाह्य और अभ्यन्तर । आक्रन्द, विलाप, परिवेदन, शोक, अन्य वैभव को देख कर विस्मय ( मूढता ) होना, विषयों में आसक्ति ये क्लिष्ट परिणाम बाह्य आर्त्तध्यानात्मक हैं । आर्त्तध्यानी जीवों को यह परिणाम स्वसंवेदनसिद्ध है । उस के चहेरे की तंग रेखाओं से दूसरे लोगों को भी उस का अनुमान हो जाता है । यह परिणाम एक मुहूर्त्त से अधिक समय नहीं रहता, मुहूर्त्त के बाद तो उस कुछ न कुछ परिवर्त्तन हो जाता है ।
आभ्यन्तर आर्त्तध्यान परिणाम के चार भेद हैं । १. अनिष्ट वस्तु का संयोग न हो ऐसा अध्यवसाय । २. उत्पन्न अनिष्ट वस्तु के संयोग के विनाश का अध्यवसाय । ३. रमणीय इष्ट वस्तु के संयोग के लाभ की कल्पना का अध्यवसाय । ४. प्राप्त इष्ट संयोग अविनाश संकल्प का अध्यवसाय ।
इस में पहले भेद में, अनिष्ट संयोग के दो भेद हैं बाह्य और आध्यात्मिक । ठंडी-गर्मी और सर्पादि जनावर से जो भयादि परिणाम होता है वह बाह्य है । आध्यात्मिक के दो भेद हैं- वात-पित्त और कफ धातुओं के
वसायः
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