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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६३ बन्धहेतुता। न हि यद् यद्धेतुकं तत् तदभावेऽपि भवति अतिप्रसङ्गात् । असदेतत्, पूर्वोत्तरापेक्षयाऽन्योन्यं कार्य-कारणभावनियमात् । न चेतरेतराश्रयदोषः प्रवाहाऽपेक्षयाऽनादित्वात् । पुण्याऽपुण्यबन्धहेतुतया चासौ द्विविधः उत्कर्षापकर्षभेदेनाऽनेकप्रकारोऽपि दण्ड-गुप्त्यादित्रित्वादिसंख्याभेदमासादयन् फलानुबन्ध्यननुबन्धिभेदतः अनेकशब्दविशेषवाच्यतामनुभवति, एकान्तवादिनां च नायं संभवतीति 'कम्म जोगनिमित्तं० (प्र० क० गाथा १९)' इति गाथार्थं प्रदर्शयद्भि प्राक् प्रतिपादितत्वात् । प्रकार से होती है इसी लिये आस्रव को राशियुगल से कथंचिद् भिन्न माना गया है। प्रतिवादी :- यहाँ बन्ध और आस्रव में पूर्वापर भाव पर प्रश्न है। यदि अबद्ध आत्मा में कर्म का आस्रव मानेंगे तो यह प्रश्न होगा कि बन्ध के विना आस्रव होगा कैसे ? (और मुक्तात्मा को भी आस्रव की आपत्ति होगी) यदि आस्रव के पहले बन्ध के सद्भाव को मानेंगे तो आस्रव को बन्धहेतु नहीं मान सकते। जो किसी का हेतु माना जाय उस के अभाव में वह कार्य पहले से सिद्ध नहीं हो सकता। यदि आस्रव के विना ही उस के पहले बन्ध सिद्ध हो जायेगा तो मेघ के विना भी वष्टि हो जाने का अतिप्रसंग हो सकता है। अनेकान्तवादी :- यह प्रश्न निरर्थक है। यहाँ आश्रव और बन्ध में परस्पर पूर्वोत्तर भाव से कार्यकारण भाव होने का नियम है। इस में अन्योन्याश्रय दोष कल्पना करने की त्वरा नहीं करना, दोनों ही प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है और अपने उत्तर काल में आस्रव बन्ध को या बन्ध आस्रव को जन्म देता है। बन्ध के दो प्रकार हैं पुण्यबन्ध और पापबन्ध, उन के कारणस्वरूप आस्रव के भी दो प्रकार हैं शुभ और अशुभ। आस्रव में भी तरतमभाव होता है इस लिये उस के सिर्फ दो ही नहीं, प्रत्येक के अनेक भेद होते हैं, फिर भी दण्ड-गुप्ति, कषाय-अव्रत आदि के भेद से तीन-चार-पाँच ऐसे भी उस के भेद परिगणित हैं। जैसे - आस्रव मन-वचन-काया की शुभाशुभ क्रियारूप कहा गया है - तो अशुभ क्रिया को यहाँ मनदण्डवचनदण्ड और कायदण्ड कहा गया है इस प्रकार आस्रव के तीन भेद होते हैं। अथवा प्रवृत्तिरूप शुभ मनवचन-काय क्रिया को यहाँ मनोगुप्ति-वचनगुप्ति-कायगुप्ति के रूप में आस्रव के भेद गिने जाय तो भी तीन भेद हो सकते हैं। जब मन-वचन-काय क्रिया मुख्यतः कषायप्रेरित हो तब क्रोध, लोभ, मान और माया के भेद से आस्रव चार भेदवाला होता है। जब हिंसा-झूठ आदि पाँच अव्रतों से मन-वचन-काया की प्रवृत्ति लबालब हो तब पाँच अव्रतों के भेद से पाँच प्रकार आस्रव के हो सकते हैं। कभी कर्मों का आस्रव होने पर भी अत्यन्तशिथिल बन्ध होने से तीसरे क्षण में भी निष्फल होकर वे कर्म आत्मा से पृथक् हो जाते हैं तो उस को फलाननुबन्धी आस्रव कहेंगे और दृढीभूत बन्धवाले कर्मों के फल भोगना पडे, ऐसे आस्रव को फलानुबन्धी कहा जाय तो ये दो भेद भी हो सकता है। इस ढंग से तो एक ही आस्रव कषाय, अव्रत, योग (मन-वचन-काया के) इत्यादि अनेक शब्दों के वाच्यक्षेत्र में बैठ जाता है। एकान्तवादी के मत में तो ऐसी सुंदर प्रक्रिया का गन्ध भी मिलना मुश्किल है क्योंकि वे सब एकान्तवादी एकान्त भेद या एकान्त अभेद मान लेते हैं। तृतीयखण्ड में प्रथम काण्ड की 'कम्म जोगनिमित्तं'... इस १९वीं गाथा के अर्थप्रदर्शन के अवसर में व्याख्या में आस्रव का प्रतिपादन काफी हो चुका है। . कम्मं जोगनिमित्तं बज्झइ बन्ध-ट्ठिई कसायवसा। अपरिणउच्छिण्णेसु य बंधट्ठिइकारणं णत्थि ।। इस गाथा के उत्तरार्ध में कहा गया है कि अपरिणामी एकान्तनित्यात्मवादी के मत में एवं उच्छिन्न यानी एकान्तक्षणभंगवादी के मत में क्रोधादि कषाय अथवा द्वेषादि का संभव न होने से कर्म का बन्ध एवं फल प्रदान-काल तक कर्म की अवस्थिति - दोनों असम्भव है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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