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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् अथास्रवादीनामप्यनुपपत्तिः राशिद्वयेन सकलस्य व्याप्तत्वात् । न ततस्तेषां कथंचिद्भेदप्रतिपादनार्थत्वात्। अनयोरेव तथापरिणतयोः सकारणसंसार-मुक्तिप्रतिपादनपरत्वात् तथाभिधानस्यानेन वा क्रमेण तज्ज्ञानस्य मुक्तिहेतुत्वप्रदर्शनार्थत्वात् विप्रतिपत्तिनिरासार्थत्वाद् वा तदभिधानस्याऽदुष्टता । थाह आस्रवति कर्म यतः स आस्रवः काय - वाग् - मनोव्यापारः । स च जीवाऽजीवाभ्यां कथंचिद् भिन्नः तथैव प्रतीतिविषयत्वात् । अथ बन्धाभावे कथं तस्योपपत्तिः ? प्राक् तत्सद्भावे वा न तस्य उनको जीव या अजीव से विजातीय मान कर पृथक् बताना यही असंगत है, क्योंकि शास्त्रकारों ने जो जीवराशि अजीवराशि ऐसे राशियुगल दिखाया है वह सारे विश्व में व्यापक है, कोई भी पदार्थ उन के घेरे से बाहर नहीं है। यदि कोई जीव या अजीव राशि के बाहर का पदार्थ होगा तो वह जरूर शशसींग की तरह असत् होगा। तथा, शब्दवादियों ने जो एक मात्र शब्दाद्वैत का, वेदान्ती वादियों ने एक मात्र ब्रह्मादि - अद्वैत का निरूपण किया है उस का तो पूर्वग्रन्थ में विस्तार प्रतिकार किया जा चुका है। अद्वैतवाद के सामने जीवाजीवद्वैत का प्रस्थान करनेवाले निर्बाध द्वैतानुभव का समर्थन किया जा चुका है। विद्या अद्वैत की स्थापना करनेवालों को केसै भी आखिर दूसरे अविद्या पदार्थ को माना ही पडता है और विद्या - अविद्या के युगल को सालम्बन ही मानना होगा, फलतः आलम्बन अर्थात् विषय के रूप में तीसरा पदार्थ भी बलात् गले पडेगा । यदि विद्या का कोई बाह्य विषयभूत भाव ही नहीं होगा तो उस को किस की विद्या बतायेंगे ? यदि न कोई विद्या का विषय है, न कोई अविद्या का विषय है तब तो दोनों को प्रमाणभूत या अप्रमाणभूत समानरूप से मानना पडेगा, फिर उन दोनों में भेद क्या रहेगा ? विषय के संवादित्व - असंवादित्व के आधार पर ही विद्या- अविद्या का भेद किया जा सकता है । एक ज्ञान विपर्यस्त और दूसरा अविपर्यस्त यानी एक मिथ्या और दूसरा सम्यक् है ऐसा भेद, आलम्बनभूत विषय पर निर्भर रहता है। यदि दोनों ही ज्ञान निरालम्बन है तो विद्या किस को कहेंगे, अविद्या किस को कहेंगे ? निष्कर्ष यह है वस्तु अद्वैतात्मक नहीं है और जीवाजीवयुगल से बहिर्भूत भी नहीं है। ३०४ — * पृथक् आस्रवादि तत्त्वों के प्रतिपादन का हेतु प्रतिवादी :- जब आप के मत में सारा जगत् राशियुगल से व्याप्त है तब आस्रवादि पदार्थो का पृथग् विधान भी असंगत है । अनेकान्तवादी हमारे मत में तो कथंचिद् भेदाभेदभाव होने से कोई असंगति नहीं है । आस्रवादि पदार्थ राशियुगल से अभिन्न जरूर हैं, किन्तु कथंचिद् भिन्न है यह दिखाने के लिये उन का पृथग् विधान किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि जीव और अजीव ही आस्रव-बन्ध में परिणत होने पर संसार के कारण हो जाते हैं और संवर - निर्जरा में परिणत होने पर मोक्ष के कारण होते हैं अथवा जीव - अजीवआस्रव इत्यादि क्रम से पदार्थों का ज्ञान मोक्ष का हेतु है ऐसा प्रदर्शित करने के लिये, या तो आस्रवादि पदार्थों के विषय में असम्मति दिखाने वालों का निराकरण करने के लिये, राशियुगल से कथंचिद् भिन्न आस्रवादि का निरूपण करने में कोई हानि नहीं है । स्पष्टीकरण सुन मन, वचन और काया की क्रियाओं को आस्रव कहा जाता है क्योंकि उन्हीं से कर्मों का आत्मा में आस्रवण यानी झरण = आगमन = प्रवेश होता है। कर्म और आत्मा स्वतन्त्र राशि हैं किन्तु उन की असंयुक्त प्रतीति और आत्मा में कर्म के झरण की प्रतीति, दोनों कथंचित् भिन्न भिन्न Jain Educationa International - : For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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