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________________ ३०२ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् पनायां निश्चितो भवति, एकदेशज्ञानवतः सकलधर्मात्मकवस्तुज्ञानविकलतया सम्यक् तत्प्ररूपणाऽसम्भवात्। तथाहि सर्वज्ञो यथावस्थितैकदेशज्ञः । जीवादिसकलतत्त्वज्ञता त्वागमविदः सामान्यरूपतयाऽभिधीयते 'मति - श्रुतयोर्निबन्धो (सर्व) द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु' (तत्त्वार्था ० १ - १७) इति वचनात् । तत्त्वं तु जीवाऽजीवास्रव-बन्ध-संवर- निर्जरा - मोक्षाख्याः सप्त पदार्थाः । तत्र चेतनालक्षणोऽर्थो जीवः तद्विपरीतलक्षणस्त्वजीवः । धर्माऽधर्माकाशकालपुद्गलभेदेन त्वसौ पञ्चधा व्यवस्थापितः । एतत्पदार्थद्वयान्तर्वर्त्तिनश्च सर्वेऽपि भावाः । न हि रूप-रस- गन्ध - स्पर्शादयः साधारणाऽसाधारणरूपा मूर्त्ताऽमूर्त्तचेतनाऽचेतनद्रव्यगुणाः उत्क्षेपणाऽपक्षेपणादीनि च कर्माणि, सामान्य- विशेष - समवायाश्च जीवाऽजीवव्यतिरेकेणाऽऽत्मस्थितिं लभन्ते, तद्भेदेनैकान्ततस्तेषामनुपलम्भात् तेषां तदात्मकत्वेन प्रतिपत्तेरन्यथा तदसत्त्वप्रसक्तेः । ततो जीवाऽजीवाभ्यां पृथक् जात्यन्तरत्वेन द्रव्य-गुण-कर्म- सामान्यनहीं हो जाता । सिद्धान्तों का सुनिश्चित गहरा ज्ञान न होने पर भावतः सम्यक्त्व भी नहीं होता । कारण यह है कि जिस को सैद्धान्तिक अर्थ का ज्ञान नहीं है, उस को उस विषय में तदनुरूप विशिष्ट प्रकार की रुचि होना भी सम्भव नहीं है, भाव सम्यक्त्व विशिष्टरुचिस्वरूप है । हाँ, शासन की भक्ति हो तब श्रद्धाभावमूलक द्रव्यसम्यक्त्व हो सकता है जो कि मार्गानुसरणानुकुलबोधमात्र से अनुषक्त रुचिस्वरूप होता है । वैसा द्रव्यसम्यक्त्व होने मात्र से साध्य फल की प्राप्ति होना शक्य नहीं है, साध्यफल की प्राप्ति सिर्फ भावसम्यक्त्व से ही होती है। श्रद्धागर्भित मार्गानुसारिबोधगर्भित रुचि में द्रव्य सम्यक्त्व का व्यवहार भी इसी लिये किया जाता है कि वह साक्षात् या परम्परया भावसम्यक्त्व का निमित्त बनता है । गाथा के उत्तरार्ध में यह बात स्पष्ट की गयी है कि जीवादितत्त्वों के लेशमात्र को जाननेवाला अभ्यासी अनेकान्तात्मक वस्तु के निरूपण में सुनिश्चितरूप से निपुण ही हो ऐसा कोई नियम नहीं है। जिस को सिर्फ आंशिक ज्ञान है उसे सकलधर्मों से आश्लिष्ट संपूर्ण वस्तु का ज्ञान न होने से सम्यग् अनेकान्तात्मक वस्तु की प्ररूपणा की आशा उस से नहीं की जा सकती। वास्तव में तो सर्वज्ञ ही यथार्थरूप से वस्तु के एक देश का ज्ञाता हो सकता है। आगमाभ्यासी श्रुतज्ञानी को जीवादि सकलतत्त्वों का ज्ञाता बताया जाता है वह सामान्यरूप से न कि विशेषरूप से अर्थात् सकलपर्यायों के ज्ञान से नहीं, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में श्वेताम्बर जैन आचार्य उमास्वातिजीने यह स्पष्ट कहा है कि मति और श्रुत का विषयक्षेत्र (सर्व) द्रव्य है किन्तु सर्वपर्याय नहीं । * सात तत्त्व, दो पदार्थ की व्यवस्था समस्त भावसम्यक्त्व यथार्थ जीवादि तत्त्वों के ज्ञान पर अवलम्बित है इस लिये व्याख्याकार जीवादि सात तत्त्वों पर प्रकाश डालते हैं जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात पदार्थ तत्त्व है । चैतन्यमय पदार्थ जीव है, उस से विपरीत यानी चेतनाशून्य पदार्थ अजीव (जड) है। अजीव पदार्थ के पाँच भेद है धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और पुद्गलास्तिकाय । विश्व भावों का अन्तर्भाव 'जीव और अजीव' दो पदार्थों में हो जाता है। वैशेषिक दर्शन में जो छ पदार्थ बताये गये हैं उन का भी अन्तर्भाव इन दो जीव - अजीव पदार्थों में ही हो जाता है। पृथ्वी आदि द्रव्यों के रूपरस-गन्ध-स्पर्शादि तथा आत्मद्रव्य के ज्ञान - इच्छादि गुण; कोई सामान्यगुण कोई विशेष गुण, कोई चेतन द्रव्य के गुण, कोई मूर्त अचेतन द्रव्य के गुण और कोई अमूर्त अचेतन द्रव्य के गुण, तथा उत्क्षेपण - अपक्षेपणआकुंचन-प्रसारण-गमन ये पाँच क्रियाएं (कर्म), तथा सामान्य, विशेष और समवाय ये सभी पदार्थ, जीवअजीवयुगल के क्षेत्र से बाहर एक कदम भी नहीं रख सकते, क्योंकि जीव अथवा अजीव के एकान्त पृथग्भाव - Jain Educationa International ― — For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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