SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६३ ३०१ सम्यग्दर्शनमेतत् परस्परविषयाऽपरित्यागप्रवृत्तानेकनयात्मकम् तच्च ‘स्यान्नित्यः' इत्यादि सकलधर्मपरिसमाप्तवचनीयतया निर्दोषम्, एकनयवादिनस्त्वविषये सूत्रव्यवस्थापनेन आत्मोत्कर्षेण विनष्टाः स्याद्वादाभिगमं प्रति अनाद्रियमाणा 'वयं सूत्रधराः' इत्यात्मानं श्लाघमानाः सम्यग्दर्शनं विनाशयन्ति - तदात्मनि न व्यवस्थापयन्तीति यावत् ।।६२॥ ____ अथ न ते आगमप्रत्यनीकाः तद्भक्तत्वात्, तद्देशपरिज्ञानवन्तश्चेति कथं तद् विनाशयन्तीति ? अत्राह ण हु सासणभत्तीमेत्तएण सिद्धंतजाणओ होई। ण विजाणओ वि णियमा पण्णवणाणिच्छिओ णामं ।।६३।। न च शासनभक्तिमात्रेणैव सिद्धान्तज्ञाता भवति । न च तदज्ञानवान् भावसम्यक्त्ववान् भवति अज्ञातस्यार्थस्य विशिष्टरुचिविषयत्वानुपपत्ते । तद्भक्तिमात्रेण श्रद्धानुसारितया द्रव्यसम्यक्त्वं मार्गानुसार्यवबोधमात्रानुषक्तरुचिस्वभावं तु सदपि न भावसम्यक्त्वसाध्यफलनिवर्त्तकम् भावसम्यक्त्वनिमित्तत्वेनैव तस्य द्रव्यसम्यक्त्वरूपत्वोपपत्तेः। न च जीवादितत्त्वैकदेशज्ञाताऽपि नियमतोऽनेकान्तात्मकवस्तुस्वरूपप्रज्ञा * निर्दोष सम्यग्दर्शन का वास्तविक स्वरूप * एक ही नय को पकड कर खिंचातानी करने वाले को क्या नुकसान होता है यह ६२ वीं गाथा में बताया जा रहा है - ___ गाथार्थ :- सकल धर्मों में समाप्त- पर्याप्त होने वाले निरूपण से सम्यग्दर्शन निर्दोष रहता है। अपने उत्कर्ष से विनष्ट पंडितगण आत्माश्लाधा से सम्यग्दर्शन का नाश करते हैं। व्याख्यार्थ :- दर्शन यानी शुद्ध प्रतिपादन । यह तभी शुद्ध अर्थात् सम्यग् कहा जाता है जब अन्य-अन्य नय के विषयों की उपेक्षा किये विना अनेक नयों से गर्भित हो। ‘स्याद् नित्यः' इस ढंग से वस्तुमात्र को अन्य अनित्यत्वादि धर्मों को सापेक्ष रह कर कथंचित् नित्यता का प्रतिपादन होना चाहिये। ऐसा ‘स्यात्' गर्भित वचनीयत्व यानी निरूपण, वस्तु के अन्य समस्त धर्मों को भी गौणरूप से विषय करता है। इस ढंग से ही सम्यग्दर्शन दोष से अलिप्त रह सकता है। जो एक एक नय की खिंचातानी करनेवाले वादी हैं वे सूत्र को अविषय में यानी अयथार्थ विषय में जोड कर अपना उत्कर्ष करने से बाज नहीं आते। आखिर तो वे अपने उत्कर्ष से स्वयं नष्ट होते हैं। स्याद्वाद शैली का अनादर करनेवाले ऐसे पंडितगण 'हम सूत्रधर-बहुश्रुत हैं' ऐसी आत्मश्लाधा में डूब कर सम्यग्दर्शनगुण का विनाश करते हैं, सम्यग्दर्शन को आत्मसात् नहीं करते ।।६२ ।। * शासनभक्ति में सिद्धान्तज्ञान का महत्व * प्रश्न :- वे पंडित भी आगमभक्त होने से शासन के दुश्मन नहीं होते, कुछ आगम के अंशों के ज्ञाता भी होते हैं, फिर वे सम्यग्दर्शन का विनाश कैसे कर बैठेगे ? उत्तर :- सूत्रकार कहते हैं - गाथार्थ :- शासन की भक्ति होने मात्र से कोई सिद्धान्तों का ज्ञाता नहीं हो जाता। तथा, कुछ जानकारी हो जाने मात्र से वह अवश्य सुनिश्चित प्ररूपणा करने वाला नहीं हो जाता ।।६३ ।। व्याख्यार्थ :- जैन शासन पर भक्तिभाव हो जाना सरल है, किन्तु भक्ति मात्र से कोई सिद्धान्तज्ञाता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy