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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' (बृहदा० उ० २-४-५) इत्यादि, 'सत्ता-द्रव्यत्वसम्बन्धात् सद् द्रव्यं वस्तु' ( ) इति, ‘परलोकिनोऽभावात् परलोकाभावः' ( ), 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः' (मीमांसाद० १-१-२) इति, 'धर्माधर्मक्षयकरी दीक्षा' ( ) इत्यादिकमधीत्य 'सूत्रधरा वयम्' इति शब्दमात्रसंतुष्टाः गर्ववन्तः अविकोविदसामर्थ्याः अविकोविदम् अज्ञं सामर्थ्य येषां ते तथाऽविदितसूत्रव्यापारविषया इति यावत् । किमित्येवं ते ? इत्याह – यथाश्रुतमेव अविभक्ता अविवेकेन प्रतिपत्तिरेषामिति कृत्वा सूत्राभिप्रायव्यतिरिक्तविषयविप्रतिपत्तित्वात् इतरजनवद् अज्ञा इत्यभिप्रायः। अथवा स्वयूथ्या एव एकनयदर्शनेन कतिचित् सूत्राणि अधीत्य केचित् ‘सूत्रधरा वयम्' इति गर्विता यथावस्थितान्यनयसव्यपेक्षसूत्रार्थाऽपरिज्ञानाद् अविदितात्मविद्वत्स्वरूपा इति गाथाभिप्रायः ।।६१॥ अथैषामेकनयदर्शनेन प्रवृत्तानां यो दोषस्तमुद्भावयितुमाह - सम्मइंसणमिणमो सयलसमत्तवयणिज्जणिहोस । अत्तुक्कोसविणट्ठा सलाहमाणा विणासेंति ।।२।। बहुश्रुत बन जाने के लिये वे लोग विभिन्न शास्त्रों के कुछ ऐसे सूत्रों को कण्ठस्थ कर लेते हैं जो एक एक नयावलम्बी होते हैं। जैसे - बौद्धों का एक सूत्र है – 'सभी संस्कार क्षणिक हैं। हे जिनपुत्रों ! यह जो तीन धातु से बना जगत् है वह समूचा विज्ञानमात्र ही है !' यहाँ पर्यायार्थिक नय को लेकर क्षणिकत्व का और संग्रहनयगर्भित ज्ञाननय के आलम्बन से विज्ञानमात्र का निरूपण किया गया है। संग्रहनय के सातिरेक आलम्बन से किसी ने कहा है कि 'तत्त्व तो यही है कि न ग्राह्य है न ग्राहक है, सब शून्य है।' द्रव्यार्थिक संग्रहनय के आलम्बन से किसीने कहा है – 'सारे अण्ड यानी ब्रह्माण्ड में व्यापक और नित्य एक ही तत्त्व है।' द्रव्यार्थिक नय को ही पकड कर वैशेषिक दर्शन में कहा गया है कि 'कारणजन्य न होते हुए भी जो सत् होता है वह नित्य है।' आत्मा को ही सुनो, जानो, मनन करो, निदिध्यासन करो। भेदनय का आलम्बन ले कर कहा गया है कि सत्ता जाति के योग से वस्तु सत् होती है और द्रव्यत्व जाति के योग से वस्तु द्रव्यरूप होती है। नकारात्मक दृष्टि से किसीने कहा है कि परलोकप्रस्थायी आत्मा जैसा कोई तत्त्व न होने से परलोक भी नहीं है। वेदसर्वस्ववादी किसीने कहा है कि 'वेद के विधिवाक्य से जिस कर्त्तव्य की प्रेरणा की जाती है वही धर्म है।' मोक्षवादीयों का कहना है कि 'धर्म और अधर्म दोनों का सम्पूर्ण क्षय करनेवाली जो है यही दीक्षा है।' जिन पंडितों के ज्ञान का क्षयोपशम इतना विकसित और व्यापक नहीं बना है, जो सूत्रप्रयोग के विविध विस्तृत विषय को जान नहीं पाये हैं वे ऊपर बताये गये सूत्रों का विविध नयों से समीक्षण किये विना ही अपने मनमाने अर्थ कर लेते हैं और स्वयं पंडित या शास्त्री होने का गर्व धारण करते हैं। सूत्रकार महर्षि ऐसे पंडितों को ज्ञानसामर्थ्य से शून्य दिखाते हैं। उस का कारण यह है कि वे लोग सूत्र का विविध नय – दृष्टिकोणों से विवेचन - विचार - परामर्श किये विना ही सूत्र के आपातदृष्टिगोचर यथाश्रुत अर्थ को पकड कर खिंचातानी करने लग जाते हैं। उन को अज्ञ कहने का यही कारण है कि वे लोग सूत्राभिप्राय के वास्तविक विषयभूत अर्थ को छोड कर, अन्य सामान्यबुद्धिवालों की तरह अन्य अर्थ को ही स्वीकार लेते हैं। ___ व्याख्याकार ‘अथवा' कर के अन्य एक अभिप्राय का निर्देश करते हैं कि अपने ही समानधर्मी (दिगम्बरादि) पंडितवर्ग किसी एक नयदृष्टि को अपना कर कुछ सूत्र पढ लेते हैं और फिर गर्व करते हैं कि 'हम भी सूत्रधर हैं'। किन्तु उन लोगों को यथार्थ अन्यनयसापेक्ष सूत्रार्थ का भान नहीं होता इस लिये वे अपनी विद्वत्ता का यथार्थ मूल्यांकन नहीं कर सकते। यह गाथा का अभिप्राय है ।।६१ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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