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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६१ २९९ परमप्रकर्षावस्थज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मकमुक्तिमार्गस्य 'दीक्षा' शब्देनाभिधाने दीक्षातो मुक्तिरुपपन्नैव, अविकलकारणस्य कार्यनिर्वर्तकत्वात् अन्यथा कारणत्वाऽयोगात् । तत्र तद्भक्त्युपादानार्थं चैवमभिधानाददोषः । न हि तद्भक्त्यभावे उपादेयफलप्राप्तिनिमित्तसम्यग्ज्ञानादिपुष्टिनिमित्तदीक्षाप्रवृत्तिप्रवणो भवेत् । तन्नान्यपरत्वं प्रदर्शितवचसामभ्युपगन्तव्यम् । तथाऽभ्युपगमे वाऽनाप्तत्वं तद्वादिनां प्रसज्येत तत्र पूर्वोक्तदोषानतिवृत्तेः ।।६।। ये त्वविवेचितागमप्रतिपत्तिमात्रमाश्रयन्ते तेऽनवगतपरमार्था एवेति प्रतिपादयन्नाह - पाडेक्कनयपहगयं सुत्तं सुत्तहरसद्दसंतुट्ठा। अविकोवियसामत्था जहागमविभत्तपडिवत्ती ।।६१॥ प्रत्येकनयमार्गगतं सूत्रम् - "क्षणिकाः सर्वसंस्काराः, विज्ञानमात्रमेवेदं भो जिनपुत्राः ! यदिदं त्रैधातुकम् ।" ( ) इति, 'ग्राह्यग्राहकोभयशून्यं तत्त्वम्' ( ) इति, “नित्यमेकमण्डव्यापि निष्क्रियम्' ( ) इत्यादि, ‘सदकारणवद् नित्यम्' (वैशे० द. ४-१-१) इति, 'आत्मा रे श्रोतव्यो ज्ञातव्यो * दीक्षा-अंगीकार से मोक्षप्राप्ति के विधान का तात्पर्य * 'दीक्षा से मोक्ष होता है' यह विधान भी संगत है यदि अनेकान्तवाद का आश्रयण कर के 'दीक्षा' शब्द का यह अर्थ माना जाय कि प्रकृष्ट अवस्था को प्राप्त हुये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र यह मुक्ति का मार्ग है और यही दीक्षा है। सिर्फ वेषपरिवर्तनस्वरूप दीक्षा से मक्ति की प्राप्ति संगत नहीं है। जिस क स कार्य की जो कारणसामग्री होती है वह सम्पूर्ण उपस्थित रहने पर ही कार्य का जन्म होता है, अन्यथा उस को कारण भी कौन कहेगा ? तात्पर्य, अकेले चारित्र से मुक्ति नहीं होती किन्तु ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक सम्पूर्ण सामग्री से ही मोक्ष होता है। वैसे मोक्षमार्गस्वरूप दीक्षा में भक्ति-बहुमान-आदर को उत्पन्न करने के लिये 'दीक्षा से मोक्ष होता है' ऐसा कहने में कोई दोष नहीं है। यदि दीक्षा के प्रति भक्ति-बहुमान उत्पन्न नहीं होगा तो कोई भी जीव मोक्षस्वरूप जो उपादेय फल है उस की प्राप्ति में प्रबल निमित्तभूत ज्ञानादि की पुष्टि करनेवाली दीक्षा का ग्रहण करेगा ही नहीं। तब मोक्ष कैसे होगा ? ____ एकान्तवादी 'हिंसा से धर्म' ऐस विधानों में हिंसा आदि शब्दों के अर्थ की ऊपर बताये हुए अर्थ से विपरीत कल्पना कर के हिंसादि शब्दों को अन्यार्थपरक यानी वैदिकहिंसादिपरक बताते हैं वह आदरणीय नहीं है, क्योंकि उस में बाध है, अतः वैसे अर्थ को मान्य करेंगे तो उन के उपदेशक ऋषि आदि में अनाप्तता यानी अविश्वसनीयता प्रगट होगी। अनाप्तता के कारण एकान्तवाद में बताये हुए सभी दोषों का पुनरागमन होगा। इसलिये अनेकान्तवाद ही श्रेयस्कर है।।६।। * सूत्रधरशब्द से संतुष्ट जनों को उपालम्भ * कुछ विद्वान बुद्धि से विचार किये विना ही आगमसूत्र का उपरि सतह से सोच कर अर्थ कर लेते हैं। वास्तव में उन को परमार्थ का बोध नहीं होता – इस तथ्य को ६१ वीं कारिका से उजागर कर रहे हैं - गाथार्थ :- एक एक नयमार्ग बोधक सूत्र का अभ्यास कर के (कुछ लोग) 'सूत्रधर' शब्द मात्र से खुश खुश हो जाते हैं। किन्तु वे अविकसितसामर्थ्यवाले हैं क्योंकि विना विवेक यथाश्रुत अर्थ को मान लेते हैं ।।६१ ।। व्याख्यार्थ :- कुछ पंडित ऐसे हैं कि जिन के लिये लोग ‘सूत्रधर' यानी ‘बहुश्रुत' शब्द का प्रयोग कर ले तो वे तुष्ट-पुष्ट हो जाते हैं – स्वयं गर्व कर लेते हैं कि हम भी ‘पंडित' हैं, 'बहुश्रुत' हैं, 'श्रुतधारी' है। ऐसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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