________________
२९६
श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
नम्। अप्रमत्तस्य योगनिबन्धनप्राणव्यपरोपणस्याऽहिंसात्वप्रतिपादनार्थं 'हिंसातो धर्म:' इति वचनम्, राग-द्वेष-मोह-तृष्णादिनिबन्धनस्य प्राणव्यपरोपणस्य दुःखसंवेदनीयफलनिर्वर्त्तकत्वेन हिंसात्वोपपतेः ।
अत एव वैदिकहिंसाया अपि तन्निमित्तत्वेऽपायहेतुत्वमन्यहिंसावत् प्रसक्तम्, न च तस्या अतन्निमित्तत्वम्, 'चित्रया यजेत पशुकाम:' ( शाबरभाष्य १-४-३) इति तृष्णानिमित्तश्रवणात् । न चैवंविधस्य वाक्यस्य प्रमाणताऽपि उपपत्तिमती, तत्प्राप्तिनिमित्ततर्द्धिसोपदेशकत्वात् तृष्णादिवृद्धिनिमित्ततदन्यतद्विघातोपदेशवाक्यवत्। न चापौरुषेयत्वादस्य प्रामाण्यम् तस्य निषिद्धत्वात् । न च पुरुषप्रणीतस्य हिंसाविधायकस्य तस्य प्रामाण्यम् ' ब्राह्मणो हन्तव्यः' इति वाक्यवत् । न च वेदविहितत्वात्तद्धिंसाया अहिंसात्वम् प्रकृतहिंसाया अपि तत्त्वोपपत्तेः । न च 'ब्राह्मणो न हन्तव्यः' इति तद्वाक्यबाधितत्वान्न प्रकृतहिंसायास्तद्विहितत्वम् ' न वै हिंस्रो भवेत्' इति वेदवाक्यबाधितचित्रादियजनवाक्यविहितहिंसावत् के लिये परलोक का निषेध भी सार्थक है, उस से यह दर्शाने का अभिप्राय है कि इस जन्म में किये गये उग्र पापों का फल भी इसी जन्म में ही भुगतना पडेगा, परलोक की प्रतिक्षा मत करो। और फलभोग धर्मानुष्ठान नहीं है फलत्याग धर्मानुष्ठान है ।
(७) 'द्रव्य और गुणादि में अभेद ही होता है' ऐसी एकान्तवासना दूर करने के लिये उन के भेद का निरूपण सार्थक है ।
(८) क्या ‘हिंसा से धर्म होता है' यह विधान भी सत्य है ? जी हाँ, अनेकान्तवाद में सही अपेक्षा को समझने पर इस विधान में जो तथ्यांश है वह ध्यान में आयेगा । सही अपेक्षा यह है कि नितान्त अप्रमत्तभाव में निमग्न मुनियों से जो कहीं काययोग से अनिवार्य हिंसा वायुकाय आदि की होती है तो वह अहिंसारूप ही है, यह दिखाने के लिये 'हिंसा से भी धर्म होता है' ऐसा विधान मुनासिब है । परमार्थ से तो हिंसा वही है जहाँ राग से, द्वेष से मोह से, धनतृष्णादि से प्राणों का घात किया जाता है। यही सच्ची हिंसा, पापरूप हिंसा है क्योंकि उस से दुःखभोगफलक कर्म का बन्ध होता है। दीक्षा से मुक्ति की बात आगे होगी ।
* वैदिक - हिंसा में सदोषत्व-मीमांसा *
कुछ लोग वैदिक यज्ञ-याग की हिंसा को निर्दोष मानते हैं, क्या वह भी सच है ? नहीं, वह हिंसा रागादिमूलक होने से लौकिक हिंसा की तरह ही नुकसानकारक होती है । वैदिक हिंसा, अप्रमत्तमुनि से होनेवाली वायुकायहिंसा की तरह रागादिअभावप्रेरित नहीं होती । ' पशु की कामनावाला चित्रायज्ञ करे' ऐसे वैदिक विधानों से स्पष्ट सुनाई देता है कि वैदिक हिंसा भी तृष्णामूलक है । पशुहिंसा का विधान करनेवाले वेदवाक्यों में प्रामाण्य भी नहीं माना जा सकता क्योंकि वे भौतिक समृद्धि के लिये की जानेवाली पशुहिंसा के उपदेशक हैं। जैसे कि अन्य नास्तिक लोगों के तृष्णादि की वृद्धि में निमित्तभूत पशुहिंसा का विधान करने वाले वाक्य । यदि कहा जाय वेदवाक्य अपौरुषेय होने से प्रमाणभूत हैं तो यह गलत है क्योंकि कोई भी वाक्य अपौरुषेय नहीं हो सकता यह पहले कह आये हैं । अतः वेदवाक्य भी पुरुषरचित ही है और वे हिंसा का विधान करनेवाले हैं इस लिये 'ब्राह्मण का घात करना' ऐसे वाक्य की तरह अप्रमाण हैं । यदि कहा जाय कि 'वेदविहित पशुहिंसा अहिंसा हैं' तो यह गलत है क्योंकि वेदविहित ब्राह्मणहिंसा को भी अहिंसा कहना पडेगा । यदि ब्राह्मणहिंसा, 'ब्राह्मण का घात न करना' ऐसे वेदवाक्य से बाधित होने से वेदविहित नहीं हो मनुस्मृति ८/३८० |
*. 'न जातु ब्राह्मणं हन्यात्'
Jain Educationa International
-
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org