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________________ पञ्चमः खण्डः का० ६० २९७ प्रकृतहिंसायास्तद्विहितत्वोपपत्तेः । अथ 'ब्राह्मणो हन्तव्यः' इति वाक्यं न क्वचिद् वेदे श्रूयते । न, उत्सन्नानेकशाखानां तत्राभ्युपगमात् तथा च 'सहस्रवर्त्मा सामवेद:' इत्यादिश्रुतिः । अथ यज्ञादन्यत्र हिंसाप्रतिषेधः तत्र च तद्विधानम् यथा च ' अन्यत्र हिंसाऽपायहेतुः' इत्यागमात् सिद्धम् तथा तत एव तत्र स्वर्गहेतुः इत्यपि सिद्धम् । न च यदेकदैकत्रापायहेतुः तत् सर्वदा सर्वत्र तथेत्यभ्युपगन्तव्यम् आतुर - स्वस्थभुजिक्रियावदवस्थादिभेदेन भावानां परस्परविरुद्धफलकर्तृत्वोपलम्भात् । असम्यगेतत्, तृष्णादिनिमित्तता च प्रकृतहिंसेति प्रतिपादितत्वात् । न च यन्निमित्तत्वेन यत् प्रसिद्धम् तत् फलान्तरार्थित्वेन विधीयमानमौत्सर्गिकं दोषं न निर्वर्त्तयति । यथा आयुर्वेदप्रसिद्धं दाहादिकं रुगपगमार्थितया विधीयमानं स्वनिमित्तं दुःखम् । क्लिष्टकर्मसम्बन्धहेतुतया च मखविधानादन्यत्र हिंसादिकं शास्त्रे प्रसिद्धिमिति सप्ततन्तावपि तद् विधीयमानं काम्यमानफलसद्भावेऽपि तत्कर्मनिमित्तं सकती ऐसा कहा जाय तो वह भी गलत है, क्योंकि 'हिंसक न होना' ऐसे वेदवाक्य से बाधित होने पर भी जैसे चित्रादियज्ञवाक्य से विहित पशुहिंसा को वेदविहित आप मानते हैं वैसे ही ब्राह्मणहिंसा को भी वेदविहित मानने में कोई बाध नहीं है । यदि ऐसा कहा जाय 'ब्राह्मण को मारना' ऐसा वाक्य वेद में कहीं भी श्रुतिगोचर नहीं होता तो यह भी ठीक नहीं है, श्रुतिगोचर न होने पर भी वह उन वेदों में हो सकता है जो आज विच्छिन्न हो चुका है। आप भी 'सामवेद के हजारों मार्ग है' इत्यादि महाभारत (१-१-१) के वाक्य से वेद की अनेक शाखाएँ विच्छिन्न हो चुकी है इस तथ्य का स्वीकार कर चुके हैं। * याज्ञिक हिंसा का बचाव निष्फल यदि कहा जाय यज्ञबाह्य हिंसा का निषेध है, यज्ञ में हिंसा का निषेध नहीं किन्तु विधान किया गया है। ‘अन्यत्र, यानी यज्ञ के सिवाय हिंसा नुकशानकारक है' इस वेदवाक्य से जैसे 'यज्ञ में हिंसा विहित है' यह सिद्ध होता है उसी तरह वेदवाक्य से 'यज्ञ में हिंसा स्वर्ग की हेतु है' यह भी सिद्ध है। इस में क्या विरोध है ? जो आचरण किसी एक देश - काल में नुकशान करता है वह सभी देश - काल में नुकशान ही करे ऐसा मानना गलत है, क्योंकि बिमार पुरुष की भोजन क्रिया उस को नुकशान करती है किन्तु वही भोजनक्रिया स्वस्थ पुरुष को पुष्टिकारक होती है। इसी तरह अवस्थादिभेद से एक ही भाव (= पदार्थ ) परस्पर विरुद्ध लाभ-हानि आदि फल को जन्म देता है यह देखा जाता है। यह निरूपण गलत है । कारण, सभी शास्त्रों में यह बात निर्विवाद कही गयी है कि तृष्णादिमूलक हिंसा नुकशानकारक है। वैदिक यज्ञादि में भी हिंसा समृद्धि आदि के लिये की जाती है अतः तृष्णादिमूलक ही है यह पहले कहा जा चुका है। यहाँ इस तथ्य के प्रति ध्यान देना जरूरी है कि जो अनुष्ठान जिस के उत्पादहेतुरूप में प्रसिद्ध है वह यदि अन्य किसी फलकामना से किया जाय तो भी उस का जो प्रसिद्ध औत्सर्गिक दोषरूप फल है (जिस का वह उत्पादक हेतु है) उस को न उत्पन्न करे ऐसा नहीं है। उदाहरण- दाह जलन की पीडा का उत्पादक हेतु है, इस लिये आयुर्वेदशास्त्र में सामान्यतः उस का निषेध है, किन्तु किसी विशेष बिमारी को दूर करने के लिये दाह का आयुर्वेदशास्त्र में विधान भी किया गया है । किन्तु इस का मतलब यह नहीं है कि वह आयुर्वेदशास्त्र से विहित होने के कारण जलन की पीडा को नहीं करेगा। ठीक इसी तरह यज्ञविधायक वाक्यों से भिन्न वेदवाक्यों के द्वारा हिंसा का निषेध इसी लिये किया गया है कि हिंसा क्लिष्ट कर्मबन्ध की हेतु है। अतः यदि सप्ततन्तु आदि वेदविहित अनुष्ठानों में हिंसा करने से कदाचित् कामित फलसिद्धि हो या न भी हो, किन्तु क्लिष्टकर्म का बन्ध हुए विना नहीं रहेगा । Jain Educationa International --- For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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