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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६० २९५ 'हिंसातो धर्माभ्युपगमः, दीक्षातो मुक्तिप्रतिपादनम् इत्यायेकान्तवादिप्रसिद्धं सर्वमसत् प्रतिपत्तव्यम्, तत्प्रतिपादितहेतुनां प्रदर्शितनीत्याऽनेकान्तव्याप्तत्वेन विरोधात्, इतरधर्मसव्यपेक्षस्यैकान्तवाद्यभ्युपगतस्य सर्वस्य पारमार्थिकत्वात् अभिष्वङ्गादिप्रतिषेधार्थं विज्ञानमात्राद्यभिधानस्य सार्थकत्वात् । तथाहि - ‘अहमस्यैव अहमेवास्य' इत्येकान्तनित्यत्वस्वस्वामिसम्बन्धाभिनिवेशप्रभवरागादिप्रतिषेधपरं क्षणिकरूपादिप्रतिपादनं युक्तमेव । सालम्बनज्ञानैकान्तप्रतिषेधपरं विज्ञानमात्राभिधानम्। सर्वविषयाभिष्वङ्गनिषेधप्रवणं शून्यताप्रकाशनम् । 'क्षणिक एवायं पृथिव्यादिः' इत्येकान्ताभिनिवेशमूलद्वेषादिनिषेधपरं तन्नित्यत्वप्रणयनम् । जात्यादिमदोन्मूलता(?ना) नुगुणमात्माद्यद्वैतप्रकाशनम् । 'जन्मान्तरजनितकर्मफलभोक्तृत्वमेव धर्मानुष्ठानम्' इत्येकान्तनिरासप्रयोजनं परलोकाभावावबोधनम् । द्रव्याद्यव्यतिरेकैकान्तप्रतिषेधाभिप्रायं तद्भेदाख्याहै द्रव्य से गुणादि और गुणादि से दव्य सर्वथा भिन्न है। कोई प्रतिज्ञा करता है 'हिंसा से धर्म होता है'। कोई कहता है संन्यास यानी दीक्षाग्रहण से मोक्ष होता है। यह सब एकान्तवादगर्भित विधान जूठे हैं। इन विधानों को सिद्ध करने के लिये बहुत सारे हेतु कहे जायेंगे लेकिन पूर्व में कहे मुताबिक वे सब हेतु एकान्त से नहीं किन्तु अनेकान्त से व्याप्ति रखते हैं अतः एकान्त की सिद्धि के बदले उस से विपरीत अनेकान्त को सिद्ध करने से वे हेतु प्रतिपक्ष में विरोधदोष से दूषित हो जाते हैं। यदि उन एकान्तवादियों के माने हए विधानों में अन्य धर्मों की अपेक्षा जोड कर एकान्तवाद के विष की छटनी की जाय तो वे सारे विधान पारमार्थिक हो सकते हैं। कारण, रागादि दूषणों के निवारण के लिये 'जगत् विज्ञानमात्र है' इत्यादि विधान सार्थक यानी उपयोगी बन जाते हैं। ___कैसे यह देखिये - (१) पदार्थों में एकान्त नित्यत्व की वासना से 'यह मेरा, मैं उस का मालिक' ऐसी दुर्भावना के कारण किसी पदार्थ या व्यक्ति के ऊपर ऐसा राग- यानी आसक्ति हो जाती है कि 'मैं इसी का हूँ और मैं ही इस का (मालिक) हूँ।' इत्यादि...जब वस्तु के स्थायित्व की बुद्धि तूटेगी तभी यह आसक्ति टलेगी, अतः आसक्ति के निवारण के लिये 'ये सब रूप-रसादि विषय क्षण-भंगुर हैं' ऐसा विधान नितान्त उचित है। (२) 'ज्ञान मात्र सविषय ही होता है' ऐसे एकान्त अभिनिवेश से विषयों के प्रति झुकाव हो जाता है, अतः अभिनिवेश को तोड़ने के लिये 'जगत् विज्ञानमात्र है' ऐसा विधान उचित है। (३) ज्ञान का अभिमान भी दूषण है, अतः विषय और ज्ञान, सभी के अभिनिवेश का निवारण करने के लिये 'सब शून्य है' ऐसा विधान शोभास्पद है। (४) ये पृथ्वी आदि क्षणिक ही हैं, कल मेरे पास नहीं रहेगा, इस लिये आज ही उस के उपभोग को जी भर के मान लूँ..इत्यादि अभिनिवेश को दूर करने के लिये, अथवा नित्यपक्ष के प्रति द्वेषभावना आदि को दूर करने के लिये युक्तियुक्त नित्यत्व का प्रतिपादन सार्थक है। (५) लोगों को अपनी जाति, अपने कुल इत्यादि का निरर्थक अभिमान रहता है और दूसरी जातिकुल के प्रति घृणा-भाव हो जाता है। जब यह समझा जाय कि जगत् में आत्मा अद्वैत है, हम और वे सब एक आत्मा है, एक पानी की अनेक तरंग है, क्यों आपस में अभिमान-घृणा करना ? ऐसे सद्भाव की स्थापना के लिये आत्माद्वैतवाद सार्थक है। (६) क्या ‘परलोक नहीं है' ऐसा नास्तिक जैसा विधान भी पारमार्थिक मानेंगे ? जी हाँ, 'मैं तो परलोक में किये हुए कर्म के फलों का ही उपभोग करता हूँ और यही धर्मानुष्ठान है' ऐसे कदाग्रह को तोडने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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