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________________ २९२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् रव्य(?त्तिर्व्य) वधानाऽविशेषात् । एवं च स्वभावविशेषाणां सामान्यरूपाः सर्व एव भावाः विशेषरूपाश्च । तत्र देश-कालावस्थाविशेषनियतानां सर्वेषामपि सत्त्वं सामान्यमेकरूपम् अव्यवधानात्; तस्य च ते विशेषा एव अनेक रूपम् । यतः तदेव सत्त्वं परिणामविशेषापेक्षया गोत्व-ब्राह्मणत्वादिलक्षणा जातिः परिणामविशेषाश्च तदात्मका व्यक्तय इति परस्परव्यावृत्तानेकपरिणामयोगादेकस्यैकानेकपरिणतिरूपता संशयज्ञानस्येवाऽविरुद्धा । ____ व्यक्तिव्यतिरिक्तस्य सामान्यस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेः शशशृंगवदसत्त्वात् 'सन् घटः' इत्यादिप्रत्ययः सामान्य-विशेषात्मकवस्त्वभावेऽबाधितरूपो न स्यात् । न च चक्षुरादिबुद्धौ वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यं सामान्यं परव्यावर्णितस्वरूपमवभासते प्रतिभासभेदप्रसङ्गात् । यदि च तत् सर्वगतम्, है। कारण यह है कि स्वलक्षण पदार्थ किसी देश में विद्यमान होने पर भी अन्यदेश में रहे हुए अन्य स्वलक्षण के साथ उस का कोई संयोगादि सम्बन्ध नहीं माना गया है, क्योंकि अन्यसंसर्गावच्छिन्न एक अन्य स्वभाव उस में माना नहीं गया, जैसे कि विशेषशून्य सामान्य में विशेषसंसर्गकारक अन्य स्वभाव नहीं माना गया। यदि विशेषों में सम्बन्धिभेद से नये नये सम्बन्धानुकुलस्वभावविशेष किसी एक स्वलक्षण में माना जाय तो वह स्वलक्षण खुद ही उन सम्बन्धियों का सामान्य (सम्बन्धि) बन जाने से सामान्यलक्षण बन बैठेगा। दूसरी ओर, एक स्वलक्षण की किसी एक देश में वृत्ति (अवस्थिति) भी - यदि उस को अन्य देशगत विशेषों से सर्वथा असंयुक्त (यानी असम्बद्ध) ही माना जाय तो- घटेगी नहीं, क्यों कि जैसे अन्य निकटतमवर्ती स्वलक्षणों से उस का व्यवधान ही है वैसे उस देश में भी उस का व्यवधान ही है। व्यवधान समानरूप से होने पर भी अन्य स्वलक्षणों से असंयुक्त मानना और स्वकीय देश से संयुक्त मानना यह नहीं बन सकता। जब संयुक्त मानेंगे तो सम्बन्धिभेद से भिन्न भिन्न सम्बन्धानुकुलस्वभावविशेष भी मानना पडेगा। फलतः अनेक स्वभावों का एक साधारण संबधि होने से विशेषात्मक सभी भावों को उन स्वभावविशेषों की अपेक्षा सामान्यात्मक भी मानना होगा। अब ऐसी व्यवस्था होगी कि अपने अपने देश, काल और विशिष्ट दशा से नियत सभी भावों का एक 'सत्त्व' सामान्यरूप कहा जायेगा, और वे भाव उसी सामान्य के ही अव्यवधानवर्ती होने से उस के विशेषरूप कहे जायेंगे। इस प्रकार एक ही सामान्य के अनेक रूप भी हो सकते हैं। जैसे देखिये, वही एक सत्त्व सामान्य गो आदि आकार विशेषपरिणाम की अपेक्षा से गोत्व या ब्राह्मणत्व जातिरूप माना जायेगा, ये ही उस के विशेष हए। और वे गो आदि परिणामविशेष गोत्वादिजाति से अभेद भाव रखते हए 'व्यक्ति' कहे जायेंगे। जैसे संशयज्ञान में परस्पर विरुद्ध अनेक आकारों का स्पर्श होने से उस में एक-अनेकरूपता होने में कोई विरोधगन्ध नहीं है, वैसे ही यहाँ एक ही भाव में सापेक्षरूप से परस्परविलक्षण अनेक परिणामों के योग से एक-अनेकरूपता होने में कोई विरोध नहीं है। * “घट सत् है' प्रतीति से सामान्य-विशेषात्मक वस्तु की सिद्धि * ___ एकान्तवादियों ने जो व्यक्तियों से सर्वथा व्यतिरिक्त सामान्य माना है वैसा सामान्य उपलब्धि के योग्य होने पर भी जब उपलब्ध नहीं होता तब असत् सिद्ध होता है जैसे कि खरगोश का सींग। वैसे सामान्य के असत् होने पर भी जो 'घट सत् है' ऐसा अबाधित अनुभव होता है वह तभी हो सकता है यदि वस्तु को सामान्य-विशेषोभयात्मकस्वभाववाला माना जाय। अन्य वादियों ने सामान्य को नीलादि वर्ण, त्रिकोणादि संस्थान और गो-आदि अक्षर-ऐसे तीनों आकार से शून्य माना है - किन्तु ऐसा सामान्य कभी चाक्षुष आदि For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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