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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६० २९१ सामान्यायंशानां पदार्थान्तरताप्रसक्तेः। अथ निरंशं सामान्यमभ्युपगम्यते इति नायं दोषस्तर्हि सकलस्वाश्रयप्रतिपत्त्यभावतो मनागपि न सामान्यप्रतिपत्तिरिति 'सद् द्रव्यं पृथिवी' इत्यादिप्रतिपत्तेर्नितरामभावः स्यात् । तदंशानां सामान्याद् भेदाभेदकल्पनायां द्रव्यादय एव भेदाभेदात्मकाः किं नाभ्युपगम्यन्ते ? इति सामान्यादिप्रकल्पना दूरोत्सारितैव इति कुतस्तद्भेदैकान्तकल्पना ? ततः सामान्यविशेषात्मकं सर्वं वस्तु सत्त्वात्। न हि विशेषरहितं सामान्यमात्रम् सामान्यरहितं वा विशषमात्र सम्भवति, तादृशः क्वचिदपि वृत्तिविरोधात् । वृत्त्या हि सत्त्वं व्याप्तं स्वलक्षणात् सामान्यलक्षणाद् वा तादृशाद् वृत्तिनिवृत्त्या निवर्त्तत एव । यतः क्वचिद् वृत्तिमतोऽपि स्वलक्षणस्य न देशान्तरवर्त्तिनाऽन्येन संयोगः तत्संसर्गाद्यवच्छिन्नस्वभावान्तरविरहाद् विशेषविकलसामान्यवत् । एकस्य प्रतिसंबन्धि सम्बन्धस्वभावविशेषाभ्युपगमे विशेषाणां-तत्स्वलक्षणं सामान्यलक्षणमेव स्यात् । न च विशेषैरन्यदेशस्थितैरसंयुक्तस्यैकत्र तस्य वृत्तिग्रहण न हो तब तक उन के आधेय के रूप में सामान्य आदि आधेय का ग्रहण नहीं हो सकता। जितने आधारों का या व्यक्तियों का ग्रहण हो उतने सामान्यादि के अंशो का ग्रहण हो सकता है किन्तु तब सामान्यादि को अंशवत् मानना पडेगा। अंशवत् मानने पर पुनः उन अंशो में सामान्यादि की वृत्ति का विकल्प प्रश्न पहले की तरह ही सिरदर्दरूप बन जायेगा। तथा कुछ अंशों का ग्रहण होने पर भी व्यापक सामान्य का तो ग्रहण दुर्लभ ही रह जायेगा। फलतः सामान्यधारक द्रव्यादि में 'द्रव्य सत् है' इत्यादि सभी द्रव्यों को विषय करने वाली प्रतीति की तो आशा ही नहीं की जा सकती, क्यों कि सामान्य के अंश और सामान्य में अत्यन्त भेद मानना होगा। उन का भेद मानने पर, द्रव्य में अखण्ड सामान्य अवगाही 'द्रव्य सत् है' यह प्रतीति होना सम्भव नहीं है। परिणाम यह होगा कि द्रव्य-गुणादि छह पदार्थों की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जायेगी। कारण, सत्ता सामान्य की प्रतीति सम्भव नहीं है, उन के अंशो का प्रतिभास सम्भव है किन्तु वे तो भेदवादी के पक्ष में सामान्य से अत्यन्त भिन्न होने से उन्हें द्रव्यादि षट्क से अतिरिक्त पदार्थ मानना पडेगा। ___ यदि ऐसा कहा जाय - सामान्य निरंश ही माना है अतः कोई पूर्वोक्त दोष नहीं है – तब तो लेशमात्र भी, अंशमात्र भी सामान्य की प्रतीति हो नहीं सकती, क्योंकि उस के सभी आधारों का ग्रहण सम्भव नहीं है। फलतः 'द्रव्य सत् है' 'पृथ्वी सत् है' 'पृथ्वी द्रव्य है' इत्यादि प्रतीतियाँ होने की तो आशा ही छोड देना होगा। यदि अंशो का स्वीकार कर के उन का और सामान्य का भेदाभेद मान लिया जाय तो फिर द्रव्यादि को ही एक-दूसरे से भिन्नाभिन्न मान लेने में क्या हानि है ? तब सामान्यादि की लम्बी कल्पना को दूर ही भागना होगा, फिर उस के एकान्त भेद की कल्पना का तो पूछना ही क्या ? निष्कर्ष, समस्त वस्तु सत् होने के हेतु से, सामान्य-विशेषोभयात्मक होती है यह सिद्ध होता है। * सामान्य और विशेष का सर्वथा अन्योन्य-विश्लेष अयुक्त * ___ इस दुनिया में कहीं भी विशेष के आश्लेष से शून्य सामान्य और सामान्य के आश्लेष से शून्य विशेष मिलेगा नहीं। परस्पर आश्लेषशन्य सामान्य - विशेष मानने पर विशेषों में सामान्य की वृत्ति संगत होने में विरोध प्रसक्त होता है। सत्त्व वृत्ति का अविनाभावी होता हे। बौद्धमत में माने गये स्वलक्षण और सामान्यलक्षण दोनों पदार्थों परस्पराश्लेषशून्य होने से, वृत्ति का मेल बैठता नहीं। वृत्ति के भाग जाने से उन का सत्त्व भी दूर भाग जाता 5. पूर्वमुद्रिते ‘ाव्यवच्छिन्नः' इति पाठः। तालापत्रादर्श ‘र्गाद्यवच्छिन्न' इति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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