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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तादात्म्यानिष्टौ तेष्ववृत्तेः सर्वपदार्थस्वरूपाऽप्रसिद्धिः स्यात् । स्वत एव समवायस्य द्रव्यादिषु वृत्तौ समवायमन्तरेणापि द्रव्यादयोऽपि स्वधारेषु वृत्तिं स्वत एवात्मसात्करिष्यन्तीति समवायकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तिः। अवयविनोऽपि स्वारम्भकावयवेषु तादात्म्यानभ्युपगमे सामान्यस्येव तद्वस्तु वृत्तिविकल्पानवस्थादिदोषप्रसङ्गाद् न वृत्तिर्भवेत् ; वृत्तौ वा साकल्येन प्रत्याधारं ग्रहणाऽसम्भवात् व्यक्तिवद् भेदप्रसक्तिः; खण्डशः प्रतिपत्तेरगृहीतस्वभावाद् गृहीतस्वभावस्य भेदात् तथा च सामान्यादिरूपताहानिप्रसक्तिः। ___किञ्च, सर्वस्वाधारव्यापिनः सामान्यस्य द्रव्यस्य वा तद्वतां सामस्त्येन ग्रहणाऽसम्भवात् कथं तदग्रहे तद्ग्रहणं भवेत् ? आधाराऽप्रतिपत्तौ तदाधेयस्य तत्त्वेनाऽप्रतिपत्तेः सामान्याघशेष गृहीतेष्वपि सामान्यादेर्वृत्तिविकल्पादिदोषस्तेष्वपि पूर्ववत् समानः। तदंशग्रहणेऽपि च सामान्यस्य व्यापिनः कदाचिदप्यप्रतिपत्तेः 'सद् द्रव्यम्' इत्यादिप्रतिपत्तिस्तद्वत्सु न कदाचिद् भवेत्, तदंशानां सामान्यादेरत्यन्तभेदात् । अत एव द्रव्यादिषट्पदार्थव्यवस्थापि अनुपपन्ना भवेत्, प्रतिभासगोचरचारिणां
* विशिष्ट प्रतीति समवायमूलक नहीं * यदि कहा जाय कि - 'द्रव्य-गुण-कर्म और सत्तादि सामान्य सर्वथा व्यतिरिक्त होने पर भी समवाय सम्बन्ध से विशिष्ट प्रतीति हो सकती है' – तो यह ठीक नहीं है क्यों कि द्रव्य में फिर समवायवैशिष्ट्य की प्रतीति के लिये अन्य समवाय की कल्पना का अन्त ही नहीं आयेगा – यह अनवस्था दोष है। अन्य कोई संयोगादि सम्बन्ध भी घटता नहीं है। ऐसी स्थिति में द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य और विशेष इन सभी में परस्पर यदि तादात्म्य नहीं मानेंगे तो द्रव्यादि में गुणादि की वृत्ति असम्भव होने से, न द्रव्य की, न गुण की, किसी भी पदार्थस्वरूप की स्पष्ट प्रसिद्धि नहीं हो पायेगी। यदि कहा जाय कि – समवायवैशिष्ट्य के लिये नये समवाय की कल्पना अनावश्यक है क्योंकि समवाय की द्रव्यादि में स्वतः वृत्ति मान लेंगे – तो इस तरह द्रव्यादि में गुणादि की वृत्ति भी समवाय के विना स्वतः ही मान ली जाय। अवयवी द्रव्य आदि पदार्थ स्वतः ही अपने आधारों में आश्रय को आत्मसात् कर लेंगे; समवाय की व्यर्थ कल्पना का कष्ट क्यों ? यदि अवयवी द्रव्य की अपने अवयवों में तादात्म्यवृत्ति न मानी जाय तो जैसे सामान्य की द्रव्यादि में वृत्ति के ऊपर एकदेश-कृत्स्न आदि विकल्पों के असमाधान और अनवस्था का दोषारोपण होता है वैसे अवयवी की वृत्ति के ऊपर भी वे सारे दोष प्रसक्त होंगे। परिणाम यह होगा कि अवयवों में अवयवी द्रव्य की वृत्ति ही अघटित हो जायेगी। तादात्म्य के बिना भी कैसे भी वृत्ति की घटना कर लेंगे तो एक एक आधारभूत अवयवों में समस्तरूप से अवयवी की अखण्ड प्रतीति होना सम्भव न होने से एक एक अवयवव्यक्ति की तरह उस का भेद प्रसक्त होगा और उस की खण्डखण्ड प्रतीति होगी। जिस खण्ड का ग्रहण होगा वह गृहीतस्वभाव कहा जायेगा और जिस खण्ड का ग्रहण नहीं होगा उस को अगृहीतस्वभाव कहा जायेगा, इस प्रकार स्वभावभेद से अवयवी में भेद प्रसक्त होगा और उस के सर्वावयवसाधारणस्वरूप का भंग प्रसक्त होगा।
* सामान्य के ग्रहण में संकट * यह भी सोचना पडेगा कि सामान्य अथवा अवयवी द्रव्य जब अपने समस्त आधारों में व्यापक माने जाते हैं तब यह तो सम्भव नहीं है कि उन समस्त आधारों का एक-साथ ग्रहण हो सके। ऐसी स्थिति में सभी अवयवों या व्यक्तियों के ग्रहण के विना अवयवी अथवा सामान्य का ग्रहण कैसे हो सकेगा ? जब तक आधारों का
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