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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६० २८९ णामी भावः कार्यं निवर्त्तयति। नापि यौगपद्येन, कालान्तरे तस्याऽकिंचित्करत्वेनावस्तुत्वापत्तेः क्षणमात्रावस्थायित्वप्रसक्तेः। न च क्रम-योगपद्यव्यतिरिक्तं प्रकारान्तरं सम्भवतीति अर्थक्रिया व्यापिका निवर्तमाना व्याप्यां सत्तां नित्यादप्यादाय निवर्त्तते इति ‘यत् सत् तत् सर्वमनेकान्तात्मकं' सिद्धमन्यथा प्रत्यक्षादिविरोधप्रसक्तेः। न हि भेदमन्तरेण कदाचित् कस्यचिदभेदोपलब्धिः। हर्षविषादाद्यनेकाकारविवर्त्तात्मकस्यान्तश्चैतन्यस्य स्वसंवेदनाध्यक्षतो वर्ण-संस्थानसदाद्यनेकाकारस्य स्थूलस्य पूर्वापरस्वभावपरित्यागोपादानात्मकस्य घटादेर्बहिरेकस्येन्द्रियजाध्यक्षतः संवेदनात् सुखादि-रूपादिभेदविकलतया चैतन्य-घटादेः कदाचिदपि उपलम्भाऽगोचरत्वात्, महासामान्यगोचरस्याऽवान्तरसामान्यस्य वा सर्वगताऽसर्वगतधर्मात्मकस्य व्यक्तिव्यतिरिक्तस्वभावतया कदाचित् क्वचिदनुपलब्धेः - द्रव्य-गुण-कर्मणां कथं तद्विविशिष्टतया प्रतिपत्तिर्भवेत् ? समवायस्य चानवस्थादोषतः सम्बन्धान्तराभावात् द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेषाणामन्योन्यं के स्वभाव में परिवर्तन नहीं हो सकता। सहकारी की अपेक्षा का विधान भी तभी संगत हो सकता है जब कि नित्य माने हुए पदार्थ में सहकारिप्रयोजित कोई अतिशय स्वीकार किया जाय। उस का स्वीकार करने पर कथंचिद् अनित्यत्व हो जाने से अनेकान्तवाद का समर्थन होगा। सारांश, एकान्त नित्य अपरिणामी अक्षणिक पदार्थ से क्रमशः अर्थक्रिया का सम्पादन नहीं हो सकता। अपरिणामी नित्य पदार्थ एक साथ भी अर्थक्रिया का सम्पादन नहीं कर सकता । एक साथ सारी अर्थक्रिया कर लेने के बाद कालान्तर में यानी दूसरे ही क्षण में वह निष्क्रिय - अकिञ्चित्कारी हो जाने से असत् हो जाने की विपदा और सिर्फ एक क्षण कार्यकारी होने से क्षणिकता की समस्या खड़ी होगी। अर्थक्रिया का सम्पादन ‘क्रम-एकसाथ' के दो विकल्पों से अतिरिक्त किसी तीसरे विकल्प से होना सम्भव नहीं है। अपरिणामी भाव से व्यापकीभूत अर्थक्रिया दूर भागने से, उस की व्याप्यभूत सत्ता भी कोशों दूर भाग जायेगी। इस प्रकार एकान्त वाद में नहीं किन्तु अनेकान्तवाद में ही अर्थक्रियालक्षण सत्त्व की संगति ठीक बैठने से, सिद्ध हो जाता है कि जो सत् होता है वह अनेकान्तस्वरूप ही होता है, इस से विपरीत कल्पना करने पर प्रत्यक्षादि प्रमाणों का विरोध प्रसक्त होता है। * सर्वदा भेदविशिष्ट अभेद की उपलब्धि * एक तथ्य स्पष्ट है कि भेद के विना, भेद से अस्पृष्ट अभेद की उपलब्धि कभी भी किसी को भी होती नहीं है। कभी भी जब चैतन्य की उपलब्धि होती है तब सुखादि भेदों के साथ ही होती है, स्वतन्त्र नहीं होती, क्योंकि अपने संवेदनात्मकाध्यक्ष से ही यह अनुभव होता है कि अन्तश्चेतना कभी हर्ष में तो कभी विषाद में, इस प्रकार अनेक विवर्तों में अभेदभाव से जुडी रहती है। तथा इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से बाह्य घटादि की भी स्वतन्त्र उपलब्धि नहीं होती किन्त श्यामादि वर्ण एवं कम्बग्रीवादि संस्थान से मिले हए 'सत्' 'द्रव्य' इत्यादि आकारों से विशिष्ट ही बाह्य घटादि का उपलम्भ होता है और वह भी सिर्फ परमाणु आत्मक ही नहीं- स्थूलात्मक और आमादि पूर्वस्वभावत्याग एवं पक्वादि उत्तरस्वभावग्रहण से अनुविद्ध ही घटादि उपलब्धिगोचर होता है। सुख-दुःखादि से अलिप्त चैतन्य का और रूप-संस्थान आदि धर्मों से अविशिष्ट घटादि का स्वतन्त्र उपलम्भ कभी नहीं होता। तात्पर्य यह है कि सर्वगतस्वभाववाले सत्तारूप महासामान्य हो या असर्वगतस्वभाववाले द्रव्यत्वादि अवान्तर सामान्य हो, कभी भी और कहीं भी उन की उपलब्धि व्यक्ति से व्यतिरिक्त स्वभावात्मकरूप में होती नहीं है। व्यतिरिक्तस्वभाव होने पर तो द्रव्य-गुण-कर्मों की सत्तादि से विशिष्ट रूप में प्रतीति ही कैसे हो सकती है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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