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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६० पिण्डान्तरालेप्युपलभ्येत स्वभावाऽविशेषात् । आश्रयाभावादनभिव्यक्त्यभ्युपगमेऽभिव्यक्तादनभिव्यक्तस्वरूपस्य भेदात् सामान्यरूपता न स्यात् । न चाश्रयभावाभावावभिव्यक्त्यनभिव्यक्ती सत्प्रत्ययकर्तृत्वाकर्तृत्वे नित्यैकस्वभावस्य युज्यते; तद्रूपयोगिनोऽप्येकत्वे कथं नानेकान्तसिद्धिः ? स्वाश्रयसर्वगतत्वेऽपि सत्ताया आश्रयेणैकेनैकदा प्रकाशितायाः सर्वदा सर्वत्र प्रकाशितत्वात् सकलवस्तुप्रपञ्चस्य सकृदुपलब्धिप्रसङ्गः न वा कस्यचिदुपलब्धिः स्यादविशेषात् । प्रकारान्तरेण प्रतीत्यभ्युपगमेऽनेकान्तवाद एव । स्वतः सतां विशेषाणां सत्तासम्बन्धानर्थक्यम्, असतां तत्सम्बन्धानुपपत्तिः अतिप्रसक्तेः। अक्रियसामान्यसम्बन्धाद् व्यक्तीनामक्रियत्वम् सामान्यस्य वा क्रियावत्त्वादव्यापकत्वं स्यात् । व्यक्त्यव्यतिरेके बुद्धियों में भासता नहीं है। गोत्वादि सामान्य-श्वेत-रक्तादिवर्णाकार, चतुष्पद संस्थानाकार और 'गो' इत्यादि शब्दाकार से अनुविद्ध ही भासता है। फिर भी उसे वर्णादिआकारशून्य ही मानेंगे तो प्रतिभासभेद की प्रसक्ति होगी। अर्थात्, सभी को गो-संस्थानादि देख कर जैसी गोत्व जाति की प्रतीति होती है उस के बदले किसी अन्य अव्यक्त प्रकार की ही गोत्व की प्रतीति होगी। एकान्तवाद में सामान्य को सर्वगत यानी व्यापक माना गया है वह भी गलत है क्योंकि तब दो-चार गो-पिण्डों के मध्य भाग में भी गोत्व की उपलब्धि प्रसक्त होगी। अर्थात दो घेन के बीच में खडे अश्व में भी गोत्व की प्रतिती होगी, क्योंकि स्वभाव यानी उस की सत्ता गो-देश की तरह अश्वदेश में भी व्यापक है। यदि ऐसा कहें कि - गोत्वादि जाति गो-आदि आश्रयपिण्डों से ही अभिव्यक्त होती है, अतः अश्वादि में उस की उपलब्धि का अनिष्ट प्रसंग नहीं होगा, - तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि गो-आदि में अभिव्यक्त स्वरूप और अश्वादि में अनभिव्यक्तस्वरूप-इस प्रकार दो विरुद्ध स्वरूप से उस में भेद प्रसक्त होने से उस की सामान्यरूपता का ही भंग हो जायेगा। जो एकान्त नित्य पदार्थ हैं, कहीं उन का आश्रय होना - कहीं न होना, कहीं उन की अभिव्यक्ति का होना-कहीं न होना, कहीं 'सत्' ऐसी प्रतीति को जन्म देना-कभी न देना, ऐसा विरुद्ध धर्मों का समावेश उन में सम्भव ही नहीं है क्योंकि वह नियत एकान्तस्वरूप होता है। यदि एकान्त नित्य एक पदार्थ में आश्रित-अनाश्रित आदि अनेक विरुद्ध धर्मों का अन्तर्भाव मानेंगे तो अनेकान्तवाद की सिद्धि को अब कौन रोक सकता है ? सामान्य को सर्वव्यापक न मान कर सिर्फ अपने आश्रय मात्र में ही व्यापक मानेंगे तो यह अनिष्ट प्रसक्त होगा कि किसी एक आश्रय में सामान्य प्रकाशित हो जाने पर सर्वाश्रयों में सदा के लिये वह प्रकट हो कर रहेगा, क्योंकि एक आश्रय में प्रकाशित और अन्य आश्रय में अप्रकाशित ऐसे विरुद्ध धर्मों का एक में अन्तर्भाव एकान्तवादी को मान्य नहीं है। फलतः, एक आश्रय में सत्ता की प्रतीति होने पर समस्त सत् वस्तुसमूह के सत्त्व की उपलब्धि होगी, या तो किसी एक आश्रय में भी उस की उपलब्धि नहीं होगी, क्योंकि प्रकाशित या अप्रकाशित, सामान्य तो सर्वत्र सर्वदा एकस्वरूप ही होता है। ऐसा कोई विशेष उस में है नहीं जिस से कि एक आश्रय में प्रकाशित और अन्य में अप्रकाशित माना जा सके। यदि उस में कुछ विशेष का स्वीकार कर के 'घट सत् है' ऐसी प्रतीति को संगत करने जायेंगे तो सामान्य में विशेषाश्लेष प्रसक्त होने से अनेकान्तवाद गले में आ पडेगा। __* सामान्य के पक्ष में निरर्थकतादि दोषसन्तान * _ 'सत्' के बारे में ये विकल्प प्रश्न भी समस्यारूप हैं - द्रव्य-गुणादि विशेष पदार्थ स्वयं सत् है या असत् हैं ? यदि स्वयं सत् हैं तब तो सत्तासामान्य का योग निरर्थक है। यदि वे स्वयं असत् हैं तो उन असतों से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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