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पञ्चमः खण्डः - का० ६०
२८३ प्रसाधितत्वात् । नापि ग्राह्यग्राहकसंवित्तिलक्षणरूपत्रयात्मकमेकं विज्ञानं बौद्धं प्रत्यसिद्धम् तथाभूतविज्ञानस्य प्रत्यात्मसंवेदनीयस्य प्रतिक्षेपे सर्वप्रमाण-प्रमेयप्रतिक्षेपप्रसक्तेः। स्वार्थाकारयोर्विज्ञानमभिन्नस्वरूपम्, विज्ञानस्य च वेद्य-वेदकाकारों भिन्नात्मानों कथञ्चिदनुभवगोचरापन्नौ । एतच्च प्रतिक्षणं स्वभावभेदमनुभवदपि न सर्वथा भेदवत् संवेद्यते इति संविदात्मनः स्वयमेकस्य क्रमवर्त्यनेकात्मकत्वं न विरोधमनुभवतीति कथमध्यक्षादिविरुद्धं निरन्वयविनाशित्वमभ्युपगन्तुं युक्तम् ?! न हि कदाचित् क्वचित् क्षणिकत्वमन्तर्बहिर्वाऽध्यक्षतोऽनुभूयते 'तथैव' इति निर्णयानुत्पत्तेः, भेदात्मन एव अन्तर्विज्ञानस्य बहिर्घटादेवाभिन्नस्य निश्चयात् । तथाभूतस्याप्यनुभवस्य भ्रान्तिकल्पनायां न किञ्चिदध्यक्षमभ्रान्तलक्षणभाग् भवेत् । न हि ज्ञानं वेद्य-वेदकाकारशून्यं स्थूलाकारविविक्तम् परमाणुरूपं वा घटादिकमेकं निरीक्षामहे यतः बाह्याध्यात्मिकं भेदाभेदरूपतयाऽनुभूयमानं भ्रान्तविज्ञानविषयतया व्यवस्थाप्येत । अतः 'यथादर्शनमेवेयं मान-मेयव्यवस्थितिः न पुनर्यथातत्त्वम्' ( 2 ) इत्येतद् अनिश्चितार्थाभिधानम् । न - इस प्रयोग के सामने यदि वैशेषिकों की ओर से कहा जाय कि हम वस्त्र के चित्ररूपको एकानेकस्वरूप नहीं मानते अतः दृष्टान्तासिद्धि दोष होगा – तो वह गलत है, क्योंकि इसी काण्ड में पहले (पृ० २१४) चित्ररूप की चर्चा में चित्ररूप की एकानेकरूपता का साधन कर आये हैं। बौद्ध यदि ऐसा कहें कि ग्राह्याकार, ग्राहकाकार और संवेदनाकार ऐसे तीन लक्षणों से मिलित एक विज्ञान हमारे मत में असिद्ध है - तो वह भी गलत है, क्योंकि तथाविध तीन आकारों से मिलित एक विज्ञान का संवेदन जन-साधारण में अनुभवप्रतिष्ठित है, फिर भी उस का विरोध करेंगे तो सर्वत्र सर्व प्रमाणों और प्रमेयों का विलोप प्रसक्त होगा।
सभी प्रमाताओं का यह अनुभव है कि स्वाकार यानी ग्राहकाकार और ग्राह्याकार इन दोनों से विज्ञान अभेदभाव धारण करता है, दूसरी ओर विज्ञान के वेद्य-वेदक दो आकार परस्पर कुछ भिन्न स्वरूप भी होते हैं (नहीं तो 'वेद्य' 'वेदक' ऐसे दो शब्द प्रयोग करने की आवश्यकता न होती।)। क्षण क्षण में जो विज्ञान का संवेदन होता है उस में प्रतिक्षण आकारों में स्वभावतः यानी ग्राह्यस्वभाव और ग्राहकस्वभाव के रूप में परस्पर विलक्षणता का अनुभव होता हुआ भी सर्वथा भेद अनुभव नहीं होता किन्तु विज्ञान से उन की अभिन्नता का भी अनुभव होता है और एक ही विज्ञानमयता के रूप में दोनों आकारों में अभेद भी अनुभूत होता है। इससे यह फलित होता है कि पूर्वापरभावि क्षणों में संवेदन का स्वरूप स्वतः एकात्मक होते हुए भी क्रमिक अनेकाकारों के उत्पत्ति-विनाश से अनेकात्मक भी होता है। इस में जब विरोध का प्रसर ही नहीं है तब प्रत्येक क्षणों का क्षणमात्र में एकान्त से निरन्वय विनाश मानना कहाँ तक उचित है जब कि उस में प्रत्यक्षादि प्रमाणों का विरोध भी जागरुक है ?!
* क्षणिक- निराकारज्ञानवाद अनुभवबाह्य * कभी भी किसी भी बाह्य या आन्तर कोई भी चीज का ‘क्षणभंगुर है' ऐसा अनुभव प्रत्यक्षादि से कहीं भी होता नहीं है। यदि वस्तु क्षणभंगुर होती तो बाह्य घटादि वस्तु को एक बार देखने के बाद फिर से 'वही - वैसी ही है' ऐसा निश्चय कभी भी नहीं हो सकता। निश्चय तो ऐसा ही होता है कि आन्तरिक विज्ञान बाह्य घटादि से (कथंचिद्) भिन्न है और बाह्य घटादि तो पहले जो था उस से अभिन्न है। यदि म. “यथानुदर्शनं चेयं मेयमानफलस्थितिः। क्रियतेऽविद्यमानापि ग्राह्य-ग्राहकसंविदाम् ।।' इति प्रमाणवार्त्तिके (२-३५७)।
'तस्माद् ग्राह्य-ग्राहकसंविदा परमार्थतोऽविद्यमानापि मेयमानफलस्थितिर्यथादर्शनं क्रियते । ग्राह्याकारो मेयः, ग्राहकाकारो मानम्, संवित्तिः फलमिति व्यवस्थाप्यते' इति मनोरथनन्दीव्याख्या ।
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