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________________ २८२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न चैवं छत्र-दण्ड-कुण्डलादिसम्बन्धविशेषविशिष्टदेवदत्तादेरिव समवायिनो जाति-गुणत्वादेर्भेदेनोपलब्धेः (ब्धिः)। न हि य एव दण्ड-देवदत्तयोः सम्बन्धः स एव छत्रादिभिरपि, तत्सम्बन्धाऽविशेषे तद्विशेषणविशेष्यवैफल्यप्रसक्तेः। न हि विशेषणं विशेष्यं धर्मान्तराद् व्यवच्छिद्य आत्मन्यव्यवस्थापयद् विशेषणरूपतां प्रतिपद्यते । एवं समवायसम्बन्धस्याऽविशेषे द्रव्यत्वादीनामपि विशेषणानामविशेषान्न जीवाजीवादिद्रव्यव्यवच्छेदकता स्यादिति समवायिसंकरप्रसक्तिः कथं नाऽसज्येत ? न च समवायः तद्ग्राहकप्रमाणाभावात् सम्भवति । तदभावे न वस्तुनो वस्तुत्वयोगो भवेदिति तद् अनेकान्तात्मकैक - रूपमभ्युपगन्तव्यम् । न चैकानेकात्मकत्वं वस्तुनो विरुद्धम् प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तुनि विरोधाऽयोगात् । तथाहि - एकानेकात्मकमात्मादि वस्तु, प्रमेयत्वात्, चित्रपटरूपवत् ग्राह्यग्राहकाकारसंवित्तिरूपैकविज्ञानवद् वा। न च वैशेषिकं प्रति चित्रपटरूपस्यैकानेकत्वमसिद्धम् प्राक् (पृ. २१४) * गुणादि की पृथग् उपलब्धि के प्रसंग का निरसन * समवायवादी :- जब आप नित्यमिलन कारक समवाय को नहीं मानेंगे तो समवायी द्रव्य से पृथक् गुण, जाति आदि की उपलब्धि प्रसक्त होगी, जैसे देवदत्त में उस के संयोगसम्बन्ध से विशेषणभूत दण्ड, छत्र और कुण्डलादि की पृथक् उपलब्धि सभी को होती है। अनेकान्तवादी :- ऐसी कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि संयोग और समवाय की बात अलग है, देवदत्त और दण्ड का संयोग और देवदत्त-छत्रादि का संयोग, ये एक नहीं होते हैं। यदि इन में भी एक ही सम्बन्ध होता तो छत्रादि विशेषण और देवदत्तादि विशेष्य-यह व्यवस्था ही निरर्थक बन जायेगी। कैसे यह देखिये - यदि संयोगरूप सम्बन्ध सर्वत्र एक ही होता तो दण्ड का सम्बन्ध सिर्फ देवदत्त के साथ नहीं, यज्ञदत्तादि सभी व्यक्ति के साथ प्रसक्त होने से, दण्ड देवदत्त का विशेषण बन कर दण्डि के रूप में यज्ञदत्तादि की व्यावृत्ति कर नहीं सकता, मतलब कि दण्ड 'विशेषण' ही नहीं होता, फिर देवदत्त उस का विशेष्य भी कैसे होता ? 'विशेषण' कहा जाने वाला भाव यदि विशेष्य को अन्य धर्मी से विच्छिन्न बना कर, यानी उस से उस की भिन्नता दिखा कर यदि 'देवदत्तादि' को ही विशेष्यस्वरूप में व्यवस्थित न कर सके तो उस को विशेषण कौन कहेगा ? प्रस्तुत में समवायसम्बन्ध भी यदि एक और व्यापक होगा तो विशेषणरूप से अभिमत द्रव्यत्वादि, सर्वसाधारण यानी गुणादिवृत्ति हो जाने से, द्रव्यत्वादि के बल पर जो जीव-अजीवादि द्रव्यों की व्यावर्त्तकता उस में है वही अब नहीं रहेगी। फलतः द्रव्य की तरह गुणादि भी द्रव्यत्व के समवायी हो जाने से समवायिसांकर्य दोष क्यों नहीं होगा ? दूसरी बात यह है कि समवाय का ग्राहक कोई ठोस प्रमाण न होने से समवाय का सद्भाव ही नहीं है। प्रमाण का विरह होने पर वस्तु में वस्तुत्व का योग भी दुर्घट बन जायेगा। निष्कर्ष, कोई भी एक रूप यानी भाव, अनेकान्तात्मक होता है यही मानना उचित है। किसी भी वस्तु में एकानेकरूपता होने में विरोध की शंका करना उचित नहीं, क्योंकि वस्तु की एकानेकरूपता प्रमाणसिद्ध होने से, उस में विरोध का प्रसर ही नहीं है। * वस्तुमात्र में एकानेकस्वरूप की सिद्धि * एकानेकात्मक वस्तु में कोई विरोध कैसे नहीं है यह देखिये - आत्मादि वस्तु एक-अनेक स्वरूप होती है क्योंकि वह प्रमेय है जैसे कि वस्त्र का चित्ररूप अथवा ग्राह्य-ग्राहकोभयाकार एवं संवेदनस्वरूप एक विज्ञान । 4. कैकः रूप० इति पूर्वमुद्रिते। पाटणसत्कताडपत्रादर्श तु 'कैकरूप' इति पाठः शुद्धः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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