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पञ्चमः खण्डः - का० ६०
२८१ लक्षणम्, भेदं प्रतिक्षणविवर्त्तात्मकं वा जीवाजीवादिभावानां प्रतीत्य समानतया तदतदात्मकत्वेन प्रज्ञापना = निरूपणा या सा सत्पथ इति । ___ न हि तदतदात्मकैकद्रव्यत्वादिभेदाभावे खरविषाणादेर्जीवादिद्रव्यस्य विशेषः। यतो न द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव-पर्यायादेश-संयोग-भेदरहितं वस्तु केनचित् प्रत्यक्षाद्यन्यतमप्रमाणेनावगन्तुं शक्यम् । न च प्रमाणाऽगोचरस्य सद्व्यवहारगोचरता सम्भविनीति तदतदात्मकं तद् अभ्युपगन्तव्यम् । न ह्येकान्ततोऽतदात्मकं द्रव्यादिभेदभिन्नं व्यतिरिक्तरूपं च प्रमाणतस्तद् निरूपयितुं शक्यम्, द्रव्यादिव्यतिरिक्तस्य शशशृंगवत् कुतश्चित् प्रमाणादप्रतीतेः। न हि ततो द्रव्यादीनां भेदेऽपि समवायसम्बन्धवशात् तत्सम्बद्धताप्रसङ्गः, सम्बन्धिभेदेन तद्भेदाभेदकल्पनाद्वयानतिवृत्तेः। प्रथमविकल्पे समवायानेकत्वप्रसक्तिः सम्बन्धिभेदतो भेदात्, संयोगवदनित्यत्वप्रसक्तिश्च । द्वितीयकल्पनायामपि सम्बन्धिसंकरप्रसक्तिः । क्रमिक विभाग विवक्षित है। 'संयोग' शब्द से भूमि-जलादि का समुदाय विवक्षित है जो कि द्रव्य-पर्याय उभयस्वरूप है। ‘भेद' शब्द से जीव-अजीवादि पदार्थों का प्रतिसमय होने वाला विवर्त्त अपेक्षित है। इन आठों को लेकर समानपद्धति से किसी भी पदार्थ की तद्रूप-अतद्रूप भाव से प्रज्ञापना यानी निरूपण किया जाय - वही सन्मार्ग यानी सत् प्ररूपणा है।
* गर्दभसींग और जीवादिद्रव्यों में विशेषता का मूल * अगर ऐसा न माना जाय कि एक ही जीवादिद्रव्य भिन्न भिन्न अपेक्षा से एक भी है अनेक भी है, कथंचित् तद्रूप है कथंचिद् अतद्रूप है - सिर्फ कूटस्थ एक स्वरूप माना जाय तब तो शशसींग और जीवादिद्रव्य में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। प्रत्यक्षादि किसी एक प्रमाण से कोई भी एक वस्तु जब भासित होती है तब द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-पर्याय-देश-संयोग और भेद से अवगुण्ठित ही भासित हो सकती है, अन्यथा द्रव्यादि से विनिर्मुक्तस्वरूप से कोई भी वस्तु भासित नहीं होती। जो प्रमाण का अगोचर है वह कभी भी ‘सद्' व्यवहारविषय नहीं बन सकता। अतः प्रमाण से एकानेक, तद्रूप-अतद्रूप भासित होने वाली वस्तु को तादृश ही मानना चाहिये।
द्रव्यादि भेद से भिन्न एवं द्रव्यादि से एकान्त से अव्यतिरिक्त हो और एकान्त से अतदात्मक हो ऐसी वस्तु प्रमाणनिरूपित नहीं हो सकती, क्योंकि द्रव्यादि से सर्वथा व्यतिरिक्त वस्तु शशसींग की तरह किसी भी प्रमाण से प्रतीत नहीं है। यदि कहा जाय – गुण-क्रियादि वस्तु ऐसी है जो द्रव्यादि से सर्वथा व्यतिरिक्त ही है, तथापि 'समवाय' नामक सम्बन्धविशेष के बल से वे गुणक्रियादि द्रव्य के साथ चिपक कर रहते हैं। - तो यह ठीक नहीं, क्योंकि यहाँ दो विकल्पों की संगति होना दुष्कर है। विकल्प ये हैं कि सम्बन्धि यानी पृथ्वी-जलादि द्रव्यों के भेद से वह समवाय भी भिन्न भिन्न होगा या एक ही होगा ? यदि भिन्न होगा तो प्रथम विकल्प में एकसमवायवादी को अनेक समवायों के स्वीकार की विपदा होगी। उपरांत, जैसे सम्बन्धिभेद से भिन्न भिन्न संयोग अनित्य होता है वैसे नित्यसमवायवादी को यहाँ संबन्धिभेद भिन्न समवाय को भी अनित्य स्वीकारने की मुसीबत होगी। दूसरे विकल्प में यदि व्यापक एक समवाय मानेंगे तो कौन किस का सम्बन्धि है - नहीं है, इस विषय में कोई नियतभाव न रहने से सम्बन्धिसांकर्य का संकट खडा होगा, अर्थात् पशुत्व सिर्फ पशु का ही नहीं मनुष्य का भी ‘समवेत' धर्म होगा और मनुष्यत्व सिर्फ मनुष्य का ही नहीं, पशु का भी सम्बन्धी धर्म बन जायेगा।
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