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________________ २८४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् हि क्वचित् केनचित् प्रमाणेनैकान्तरूपं वस्तुतत्त्वमयं प्रतिपन्नवान् यत एवं वदन् शोभेत । यदा चाध्यक्षविरुद्धः निरंशक्षणिकैकान्तः ततो नानुमानमपि अत्र प्रवर्तितुमुत्सहतेऽध्यक्षबाधितविषयत्वात्तस्य । तेन "निरन्वयविनश्वरं वस्तु प्रतिक्षणवेक्षमाणोऽपि नावधारयति' ( ) इत्येतदप्यसदभिधानम्, प्रतिक्षणविशरारुतायाः कुतश्चिदप्यनीक्षणात् । ___ अत एव क्षणिकत्वैकान्ते सत्त्वादिहेतुरुपादीयमानः सर्व एव विरुद्धः, अनेकान्त एव तस्य सम्भवात् । तथाहि - अर्थक्रियालक्षणं सत्त्वम्, न चासौ तदेकान्ते क्रम-यौगपद्याभ्यां सम्भवति, यतः 'यस्मिन् सत्येव यद् भवति तत् तस्य कारणम् इतरच्च कार्यम्' इति कार्य-कारणलक्षणम्, क्षणिके च कारणे सति यदि कार्योत्पत्तिर्भवेत् तदा कार्य-कारणयोः सहोत्पत्तेः किं कस्य कारणम् किं वा कार्य ऐसे अनुभव को 'भ्रान्ति' ठराया जाय तो फिर वह कौन सा प्रत्यक्ष बचेगा जिस को अभ्रान्तस्वरूप माना जाय ?! निरीक्षकों को ऐसा अनुभव नहीं होता कि संवेदन ग्राह्याकार-ग्राहकाकार से सर्वथा अलिप्त है, घटादि स्थूलाकार से सर्वथा विमुक्त केवल परमाणु (अथवा परमाणुपुञ्ज) स्वरूप ही है। यदि वैसा अनुभव होता तब तो भिन्नाभिन्नरूप से अनुभवगोचर होने वाली बाह्य अथवा अभ्यन्तर वस्तु को भ्रान्त ज्ञान का विषय कहा जा सकता था ! किन्तु वैसा अनुभव नहीं होता, फिर भी वस्तु को क्षणिक, ज्ञान को निराकार मानने वाले बौद्धों का यह कथन-प्रमाण-प्रमेय की व्यवस्था दर्शन के अनुरूप होनी चाहिये नहीं कि (स्वकल्पित) तत्त्वों के अनुसार – यह सिद्धान्तकथन अनिश्चित यानी संशयग्रस्त बन जायेगा। कहीं भी, किसी भी प्रमाण से बौद्ध को एकान्तगर्भित वस्तु तत्त्व का दर्शन नहीं हुआ, फिर भी वह दर्शनानुसार वस्तुव्यवस्था की बात करे तो वह उस के लिये शोभास्पद नहीं है। स्वयं दर्शनानुसार अनेकान्तात्मक वस्तु स्वीकार करता तो वह सिद्धान्तकथन शोभायुक्त हो सकता। यह भी सोचना होगा कि एक ओर निरंश-क्षणिक एकान्तवस्तुवाद प्रत्यक्ष विरुद्ध होते हुए भी ‘यत् सत् तत् क्षणिकम्' इत्यादि क्षणिकत्व साधक अनुमानों का प्रयोग करने का साहस किया जाय तो वहाँ क्षणिकविषय प्रत्यक्षबाधित होने से वह अनुमान प्रवृत्त ही नहीं हो सकेगा। बौद्धोंने जो यह कहा है कि 'प्रतिक्षण निरन्वयविनाशी वस्तु का ही निरीक्षण होता तो किन्तु (कुछ कारणवशात्) अवधारण यानी वैसा निश्चय (= सविकल्पज्ञान) नहीं हो पाता' यह कथन भी अब उपरोक्त चर्चा के प्रकाश में गलत सिद्ध हो रहा है, क्योंकि किसी भी प्रमाण से, प्रतिक्षण क्षणविनाशी वस्तु का दर्शन होता नहीं है। * क्षणिकत्वसाधक सत्त्वादि हेतु विरुद्ध कैसे ? * अनेकान्त के साथ ही सत्त्व का मेल खाता है, एकान्त के साथ उस का मेल नहीं खाता, इसी लिये बौद्धों की ओर से एकान्तक्षणिकत्व की सिद्धि के लिये सत्त्व आदि को हेतु करने पर, वे सभी हेतु विरुद्ध हो बैठेंगे। कैसे यह देखिये - सत्त्व का लक्षण है अर्थक्रिया। एकान्त क्षणिकवाद में क्रमशः अथवा एकसाथ अर्थक्रियाकारित्व का सम्भव नहीं है। क्यों ऐसा ? इस लिये कि कारण और कार्य का लक्षण संगत होना चाहिये, 'जिस के रहते हुए ही जो उत्पन्न हो वह कारण है और उत्पन्न होनेवाला कार्य है।' अब यह देखना है कि क्षणिक पदार्थ रहते हुए (अर्थात् उस क्षण में ही, जिस क्षण में वह स्वयं विद्यमान है -) यदि कार्य की उत्पत्ति मानेंगे तो कारण-कार्य दोनों सहोत्पन्न और समानक्षणवृत्ति हो जाने से कौन किस का कारण और किस का कौन कार्य इस के ऊपर प्रश्नचिह्न लग जायेंगे। तथा क्षणिक कारणकार्य समानक्षणवृत्ति हो जाने पर परम्परया सारे जगत् के पदार्थ एकक्षणवृत्ति हो जायेगा। (चौथी क्षणवाला भाव कारणक्षणसमानक्षणवृत्ति हो जाने से तृतीय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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