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________________ २७८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न चैकान्तवादिना प्रतिबन्धग्रहणमपि युक्तिसंगतम् अविचलितरूपे आत्मनि ज्ञानपौर्वापर्याभावात् । प्रतिक्षणध्वंसिन्यपि उभयग्रहणानुवृत्तैकचैतन्याभावात् – कारणस्वरूपग्राहिणा ज्ञानेन कार्यस्य तत्स्वरूपग्राहिणा च कारणस्य ग्रहणासम्भवादेकेन च द्वयोरग्रहणे कार्य-कारणभावादेः प्रतिबन्धस्य ग्रहणायोगात् कारणादिस्वरूपाऽव्यतिरेकेऽपि कारणत्वादेर्न तत्स्वरूपग्राहिणा कार्यकारणभावादेर्ग्रहः, एकसम्बन्धिस्वरूपग्रहणेऽपि तद्ग्रहणप्रसक्तेः । न च तद्ग्रहेऽपि निश्चयानुत्पत्तेर्न दोषः, सविकल्पकत्वेन प्रथमाक्षसन्निपातजस्याध्यक्षस्य व्यवस्थापनात् । से अन्य कोई स्वरूप है नहीं। फलतः लिंग निःस्वभाव मानने की विपदा सिर उठायेगी। * अनेकान्तमत में एकलक्षण हेतुकथन का तात्पर्य * यदि यह कहा जाय – अनेकान्तवादी तो लिंग का एक ही लक्षण मानते हैं – अन्यथानुपपत्ति, किन्तु दूसरी ओर लिंग को अनेकान्तात्मक यानी अनेकलक्षणवाला भी मानते हैं – तब एकलक्षणतारूप अपने सिद्धान्त के साथ विरोध क्यों नहीं होगा ? – तो यह ठीक नहीं है क्योंकि हमने-प्रयोग कितने लक्षणोंवाले हेतू का किया जाय – इस नियम की चर्चा में ही हेतु को एकलक्षणवाला कहा है न कि स्वभाव के नियम की चर्चा में। स्वभाव का निरूपण करते समय तो यही नियम कहा गया है कि हेतुरूप वस्तु भी अनेक स्वभाव ही है। यदि स्वभावनियम चर्चा में कोई ऐसा कहे कि हेतु का एक ही लक्षण (स्वरूप) है तो वह संगत न होने से हेतु शशशींग की तरह निःस्वभाव हो जाने की विपदा जरूर प्रसक्त होगी। अत एव हमारे अनेकान्त दर्शन में, हेतु में कितने अंग साध्य के गमक, यानी साध्यसिद्धि में उपयोगी हैं - इस के प्रतिपादन में ही हेतु को एक लक्षण वाला कहा गया है। * एकान्तवाद में व्याप्तिग्रहण दुष्कर * एकान्तवाद में प्रतिबन्ध (= नियम = व्याप्ति) का ग्रहण भी युक्ति से संगत नहीं हो सकता। जो एकान्तनित्यवादी हैं उन के मत में आत्मा का स्वरूप सर्वथा अचल करता है, अतः उस में पहले हेतु का ज्ञान, बाद में साध्य का ज्ञान, इस प्रकार का क्रम संगत नहीं हो सकता। नित्यवादी के मत में प्रत्येक वस्तु का ज्ञान एक साथ ही हो सकेगा, क्रमशः नहीं हो सकता। एकान्त अनित्यवाद में वस्तुमात्र को प्रतिक्षण विनाशी माना जाता है, अतः हेतु या साध्य को, अथवा कार्य और कारण को-दोनों को एक साथ ग्रहण करनेवाला एक चैतन्यक्षण न होने से इस मत में भी व्याप्य-व्यापकभाव अथवा कार्यकारणभाव स्वरूप प्रतिबन्ध का ग्रहण घटेगा नहीं। जिस ज्ञान से कारणरूप पदार्थ का ग्रहण होगा उस ज्ञानक्षण से कार्यरूपपदार्थ का ग्रहण शक्य नहीं, एवं जिस ज्ञान से कार्य का ग्रहण होगा उस ज्ञानक्षण से कारणस्वरूप का ग्रहण शक्य नहीं है - इस स्थिति में जब तक एक ज्ञान-क्षण से कार्य-कारण उभय पदार्थ का ग्रहण नहीं होगा तब तक उन दोनों में रहे हुए कार्य-कारणभाव आदिस्वरूप प्रतिबन्ध का भी ग्रहण शक्य नहीं है। यद्यपि कारणता को कारण से और कार्यता को कार्य से अभिन्न मान ली जाय फिर भी एक कारण या कार्य के ज्ञान में कारणता या कार्यता का भान हो जाय यह सम्भव नहीं है। यदि वैसा सम्भव होगा तो अग्नि आदि कि कारणता का ग्रहण सभी को हो जायेगा, किन्तु ऐसा होता नहीं। यदि ऐसा कहें कि कारण या कार्य के ग्रहण में कारणता आदि का प्रथम होने वाला निर्विकल्प ज्ञान होता ही है, किन्तु बाद में सविकल्प यानी निश्चय के उत्पन्न न होने से अग्नि आदि के ज्ञान में धूमादि कारणता का भान लक्षित नहीं होता, अतः उक्त अतिप्रसंग निरवकाश है। - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि पहले हम यह सिद्ध कर आये हैं कि प्रथम प्रथम वस्तु अक्षगोचर होने पर सविकल्प Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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