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पञ्चमः खण्डः - का० ५९
२७७ तर्हि अन्वय-व्यतिरेकावपि तत एव नावश्यं प्रदर्शनीयौ। अत एव दृष्टान्तोऽपि नावश्यं वाच्यः साधर्म्यवैधर्म्य-प्रदर्शनपरत्वात् तस्य । उपनय-निगमनवचनयोस्तु दूरापास्तता तदन्तरेणापि साध्याऽविनाभूतहेतुप्रदर्शनमात्रात् साध्यप्रतिपत्त्युत्पत्तेः, अन्यथा तदयोगात् ।
त्रिलक्षणहेतुप्रदर्शनवादिनस्तु निरंशवस्त्वभ्युपगमविरोधः निरंशे त्रैलक्षण्यविरोधात् । परिकल्पितस्वरूपत्रैरूप्याभ्युपगमोऽप्यसंगतः, परिकल्पितस्य परमार्थसत्त्वे तद्दोषानतिक्रमात् अपरमार्थसत्त्वे तल्लक्षणत्वाऽयोगात् असतः सल्लक्षणत्वविरोधात्। न च कल्पनाव्यवस्थापितलक्षणभेदाल्लक्ष्यभेद उपपत्तिमान् - इति लिङ्गस्य निरंशस्वभावस्य किञ्चिद् रूपं वाच्यम् । न च साधादिव्यतिरेकेण तस्य स्वरूपं प्रदर्शयितुं शक्यते इति तस्य निःस्वभावताप्रसक्तिः। न चैकलक्षणहेतुवादिनोऽपि अनेकान्तात्मकवस्त्वभ्युपगमाद् दर्शनव्याघात इति वाच्यम् प्रयोगनियम एव ‘एकलक्षणो हेतुः' इत्यभिधानाद् न(च) स्वभावनियमे, तथाभूतस्य शशशृंगादेरिव निःस्वभावत्वात् गमकाङ्गनिरूपणया ‘एकलक्षणो हेतुः' - इति व्यवस्थापितत्वात्। उस का भी प्रदर्शन आवश्यक बन जायेगा। ज्ञात हेतु से ही साध्य का बोधन होता है न कि अज्ञात हेतु से। यदि कहा जाय कि - वहाँ प्रयोगसामर्थ्य से ही ज्ञातव्य का बोध हो जाता है अतः उस का प्रदर नहीं है - तो सपक्षसत्त्वरूप अन्वय और विपक्ष में असत्त्वरूप व्यतिरेक भी, साध्याविनाभूतहेतुप्रयोग के सामर्थ्य से ही अभिव्यक्त हो जाते है, इस लिये उन का प्रदर्शन भी आवश्यक नहीं रहता। यही कारण है कि अन्वयव्यतिरेक की तरह दृष्टान्त भी अन्वय-व्यतिरेकस्वरूप साधर्म्य-वैधर्म्य के प्रदर्शन से ही चरितार्थ होता है, जब अन्वय-व्यतिरेकप्रदर्शन ही अनावश्यक है तो फिर दृष्टान्तप्रदर्शन की आवश्यकता नहीं रहती। उपनय और निगमनवाक्य के उच्चारण की सार्थकता भी दरापास्त ही है. क्योंकि उन के विना भी. साध्याऽविनाभत हेत के प्रदर्शनमात्र से साध्यबोध उत्पन्न हो जाता है। उपनय-निगमन-वाक्यप्रयोग करने पर भी यदि तथाविध हेतु का प्रयोग न किया जाय तो कभी भी साध्य का बोध उत्पन्न नहीं होगा। – इस प्रकार नैयायिककल्पित पञ्चावयवप्रयोग में प्रतिज्ञा और हेतु-अवयवों के अलावा शेष तीन अवयवों का प्रयोग निरर्थक ठहरता है।
हेतु का लक्षण्य भी एकान्तवाद में दुर्घट बौद्धमत में हेतु के तीन समुदित लक्षण माने गये हैं - पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष में असत्त्व । किन्तु दूसरी ओर बौद्धमत में वस्तु को निरंश ही माना गया है। इन दो बातों में विरोध प्रसक्त होता है। कारण यह है कि निरंशवस्तु में तीनलक्षणों का योग सिद्ध है। इन तीन लक्षणों को काल्पनिक माने जाय तो यद्यपि काल्पनिक लक्षणों के साथ निरंशता का विरोध नहीं होगा, किन्तु फिर भी काल्पनिकता संगत नहीं है क्योंकि कल्पित लक्षणों को यदि पारमार्थिक सत् मानेंगे तो विरोधदोष तदवस्थ ही रहेगा और यदि अपारमार्थिक मानेंगे तो गर्दभसींग की तरह उन में लक्षणत्व ही नहीं संगत होगा। कारण, असत् यानी अपारमार्थिक चीज कभी सत् यानी पारमार्थिक वस्तु का लक्षण नहीं हो सकती। लक्ष्य अगर एक ही निरंश वस्तु है तो कल्पना से आरोपित लक्षणों के द्वारा उस लक्ष्य में अन्य अलक्ष्य का भेद स्थापित नहीं हो सकता। इसलिये निरंश लिंग का कोई ऐसा स्पष्ट स्वरूप दिखाना चाहिये जिस का निरंशता के साथ विरोध न हो। यहाँ साधर्म्य और वैधर्म्य के विना और किसी लिंगस्वरूप का प्रदर्शन शक्य ही नहीं है। अर्थात् लिंग का स्वरूप दिखाने जायेंगे तो साधर्म्य-वैधर्म्य का निरूपण करना ही पडेगा, किन्तु तब लिंग की निरंशता का भंग प्रसक्त होता है, अतः साधर्म्य-वैधर्म्य को लिंग के स्वरूपात्मक नहीं दिखा सकते। साधर्म्य-वैधर्म्य
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