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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् साध्यधर्मिणोऽप्रदर्शनात् प्रदर्शितस्य चैकान्तरूपस्याऽसत्त्वात् तत्प्रदर्शकोऽसत्यवादितया निग्रहाई इति ।।५८॥ एतदेव दर्शयन्नाह - एयन्ताऽसब्भूयं सन्भूयमणिच्छियं च वयमाणो। लोइय-परिच्छियाणं वयणिज्जपहे पडइ वादी ।।५९।। आस्तां तावत् एकान्तेन असद्भूतम् = असत्यम्, सद्भूतमपि अनिश्चितं वदन् वादी लौकिकानाम् परीक्षकाणां च वचनीयमार्ग पतति । ततः अनकान्तात्मकाद्धेतोः तथाभूतमेव साध्यधर्मिणं साधयन् वादी सद्वादी स्यादिति तथैव साध्याऽविनाभूतो हेतुर्धर्मिणि तेन प्रदर्शनीयः तत्प्रदर्शनेन च - 'हेतोः सपक्ष-विपक्षयोः सदसत्त्वमवश्यं प्रदर्शनीयम्' – इति यदुच्यते परैः तदपास्तं भवति तावन्मात्रादेव साध्यप्रतिपत्तेः । न च ततस्तत्प्रतिपत्तावपि विद्यमानत्वाद् रूपान्तरमपि तत्रावश्यं प्रदर्शनीयम्, ज्ञातत्वादेरपि तत्र प्रदर्शनप्रसक्तेः। अथ सामर्थ्यात् तत् प्रतीयते इति न वचनेन प्रदर्श्यते से हो सकता है। किन्तु अगर उस के वाक्यसंदर्भ को वह अन्य धर्म का अनुषंग कर ‘स्यात्' पद के उज्ज्वल अलंकार से सजाता, और हमने पहले बताया है उस तरीके से वह उस का प्रतिपादन करता तो किसी की मजाल नहीं कि कोई उसे परास्त कर सके। अनेकान्तगर्भितरूप से साध्यधर्मी का प्रतिपादन न करने से ही उस का पराजय होता है, क्योंकि उस का एकान्तगर्भित निरूपण असत् ठहरता है, इसलिये असत् पदार्थ बतानेवाला पूर्वपक्षवादी असत्यवादिता के कारण बिचारा निगृहीत हो जाता है ।।५८ ।। * लौकिक और परीक्षकों में निन्दा का हेतु * एकान्तवादी निन्दापात्र बनता है यह ५९ वीं गाथा में कहते हैं - गाथार्थ :- एकान्त असद्भूत का और सद्भूत का भी अनिश्चित रूप से प्रतिपादन करनेवाला वादी लौकिक और परीक्षकों के उपालम्भ का पात्र बनता है ।।५९ ।। व्याख्यार्थ :- व्याख्याकार कहते हैं कि एकान्त से असत्य ऐसे पदार्थों (शशसींग आदि) का सद्भाव बतानेवाला वादी उपालम्भपात्र बने इस में तो संदेह ही नहीं है। उस की बात तो रहने दो, जो वादी सद्भूत पदार्थ का भी अनिश्चितरूप से निरूपण करता है वह भी लौकिक पुरुष एवं परीक्षक पुरुषों की निन्दा का पात्र बन जाता है। सत्यवादी वही है जो अनेकान्तस्वरूप हेतु का प्रयोग कर के अनेकान्तात्मक ही साध्यधर्मी की सिद्धि करता है। इसी लिये वक्ता को अनेकान्तवादगर्भितरूप से ही साध्य का अविनाभूत यानी साध्य का व्याप्यभूत हेतु का पक्ष में प्रदर्शन करना चाहिये । यहाँ जो कुछ लोग यह कहते हैं कि – 'हेतु के प्रदर्शन के साथ सपक्षसत्त्व और विपक्ष-असत्त्व का भी अवश्य प्रदर्शन करना चाहिये' वह निरस्त हो जाता है क्योंकि साध्याऽविनाभूत हेतुमात्र के प्रदर्शन से ही साध्य का अवबोध हो जाता है। यदि ऐसा कहा जाय कि हेतुमात्र के प्रयोग से साध्य का बोध यद्यपि हो सकता है फिर भी सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व ये दो रूप वहाँ सद्धेतु में अवश्य विद्यमान रहते हैं इस लिये उस का प्रदर्शन अवश्य करना चाहिये - तो यहाँ यह अतिप्रसंग होगा कि हेतु में ज्ञातव्य भी अवश्य रहता है अतः 2. उपा० यशोविजयजी के पत्रों में इस गाथा का अर्थ :- “एकान्तई असद्भूत अर्थ दूर रहो, सद्भूत अर्थ पणि जो अनिश्चित क० संदेहाक्रान्त कहई, तो वादी लौकिक अने परीक्षक जे लोक, तेहनो - वचनीय पथ क० निंदा मार्ग, तेहमां पडे. ते माहे संदेह न करवो।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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