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पञ्चमः खण्डः का० ५८
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निराकुरुतः। एवमेव
अत एव गाथापश्चार्धेन " एतौ = सामान्य - विशेषौ समुपनीतौ परस्परसव्यपेक्षतया 'स्यात् ' पदप्रयोगतो धर्मिणि अवस्थापयतौ विभज्यवादम् = एकान्तवादं विशेषयतः तयोरात्मलाभात् अन्यथाऽनुमानविषयस्योक्तन्यायतोऽसत्त्वात्' इत्यपि दर्शयति ।। ५७ ।। यत्रानुमानविषयतयाऽभ्युपगम्यमाने साध्ये दूषणवादिनोऽवकाश एव न भवति तदेव साध्यं हेतुविषयतयाऽभ्युपगन्तव्यमिति दर्शयन्नाह
हेउविसओवणीयं जह वयणिज्जं परो नियत्तेइ ।
जइ तं तहा पुरिल्लो दाईतो केण जिव्वंतो ।। ५८ ।। हेतुविषयतया उपनीतम् उपदर्शितं साध्यधर्मिलक्षणं वस्तु पूर्वपक्षवादिना 'अनित्यः शब्दः' इत्येवं यथा वचनीयं परो दूषणवादी निवर्त्तयति, सिद्धसाध्यतांऽननुगमदोषाद्युपन्यासेनैकान्तवचनीयस्य तदितरधर्माननुषक्तस्याऽनेकदोषदुष्टतया निवर्त्तयितुं शक्यत्वात्; यदि तत् तथा द्वितीयधर्माक्रान्तं ‘स्यात्’ शब्दयोजनेन पुरिल्लः पूर्वपक्षवादी अदर्शयिष्यत ततोऽसौ नैव केनचिदजेष्यत । जितश्चासौ तथाभूतस्य अनेकान्तवाद में ऐसा कोई दोष सम्भव नहीं है। जो ये विवादास्पद सामान्य- विशेष हैं उन को परस्पर गौण-मुख्यभाव से मिलितरूप में साध्य बनाया जाय और वैसे साध्य धर्म के आश्रयभूत पक्ष में परस्पर सापेक्षभाव से अनुविद्ध साधर्म्यस्वरूप अथवा वैधर्म्यस्वरूप उभयात्मक एक हेतु का उपन्यास किया जाय तो एकान्तवाद के चार विकल्प में जो दोष दिखाया गया है उन में से एक भी दोष प्रसक्त नहीं हो सकेगा ।
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इसी तथ्य को व्याख्याकार ने गाथा के उत्तरार्ध में दूसरे प्रकार से व्याख्या कर के इस ढंग से उजागर किया है 'स्यात् ' पद के प्रयोग के साथ परस्पर सापेक्षरूप से यदि उन सामान्य - विशेष का हेतुरूप में, पक्ष में उपन्यास किया जाय तो वे एकान्तवाद स्वरूप विभज्यवाद का निराकरण कर देते हैं। पहले विभज्यवाद का ‘अनेकान्तवाद’ अर्थ किया गया था, यहाँ 'एकान्तवाद' अर्थ बताया है, विभज्य यानी परस्पर निरपेक्षरूप से विभाजन करके वस्तु निरूपण करने वाला वाद । परस्पर सापेक्षरूप से दोनों नय का विषय अपने स्वरूप में सम्यक् स्थान प्राप्त कर सकता है। अन्यथा परस्पर वैमुख्य रखने पर तो पहले कहे गये युक्तिसंदर्भ के अनुसार अनुमान का विषय ही प्रसिद्ध न होने से असत् ठहरता है ।। ५७ ।।
* अनेकान्तवादगर्भित निरूपण अजेय
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अब ५८ वीं कारिका से यह दिखाते हैं कि ऐसे ही साध्य को हेतु के द्वारा सिद्ध करने के लिये उपन्यास किया जाय जिस साध्य को अनुमान के विषयरूप में अंगीकार करने पर दूषण प्रदर्शन करने के लिये वादी को कोई छिद्र ही न मिल सके
गाथार्थ :- हेतु के क्षेत्र के बारे में उपन्यस्त वचन को अन्यवादी जैसे (यद्यपि ) निवृत्त करता है, किन्तु यदि वही वक्ता पूर्वोक्त प्रकार से उस का उपन्यास करता तो कौन उस को जित सकता था ? ।। ५८ ।। व्याख्यार्थ :- पूर्वपक्षवादि ने हेतु के विषयक्षेत्र में अर्थात् साध्यधर्मिस्वरूप वस्तु के बारे में जो वाक्यसंदर्भ युक्तिसंदर्भ प्रस्तुत किया है वह इतना दुर्बल है कि अन्य वादी उस का आसानी से निवर्त्तन अर्थात् निरसन कर सकता है। जैसे कि अभी बता आये है कि एकान्तवाद में, कैसा भी हेतुप्रयोग करे, सिद्धसाध्यता या अननुगम दोष होता है। एकान्तवादगर्भितवाक्यसंदर्भ में अन्यधर्मों का अनुषङ्ग नहीं किया जाता, अत एव उस में सारे दोष सिर उठाते हैं और उन को दिखाने द्वारा एकान्तवादी के प्रतिपादन का निरसन सरलता
बहुत
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