SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सामान्य-विशेषयोः स्वरूपं परस्परविविक्तमनूद्य निराकुर्वन्नाह - दव्वट्ठियवत्तव्वं सामण्णं पज्जवस्य य विसेसो। एए समोवणीआ विभज्जवायं विसेसेंति ।।५७।। द्रव्यास्तिकस्य वक्तव्यं = वाच्यम् विशेषनिरपेक्षं सामान्यमात्रम्, पर्यायास्तिकस्य पुनःअनुस्यूताकारविविक्तो विशेष एव वाच्यः। एतौ च सामान्यविशेषौ अन्योन्यनिरपेक्षौ एकैकरूपतया परस्परप्राधान्येन वा एकत्र उपनीतौ = प्रदर्शितौ विभज्यवादम् = अनेकान्तवाद सत्यवादस्वरूपमतिशयाते असत्यरूपतया ततः तौ अतिशयं लभेते इति यावत् । विशेषे साध्ये अनुगमाभावतः, सामान्ये साध्ये सिद्धसाधनतया साधनवैफल्यतः, प्रधानोभयरूपे साध्ये उभयदोषापत्तितः, अनुभयरूपे साध्ये उभयाभावतः साध्यत्वाऽयोगात्। तस्माद् विवादास्पदीभूतसामान्यविशेषोभयात्मकसाध्यधर्माधारसाध्यधर्मिणि अन्योन्यानुविद्धसाधर्म्य-वैधर्म्यस्वभावद्वयात्मकैकहेतुप्रदर्शनतो नैकान्तवादपक्षोक्तदोषावकाशः सम्भवी। ___ यही सब बात मन में रख कर ग्रन्थकारने ५६ वीं गाथा के उत्तरार्ध में कहा है कि हेतु के सामान्यविशेष विकल्पों में एकान्तसामान्यवाद और एकान्तविशेष वाद दोनों एक दूसरे से टकरा कर दुर्बल हो जाते हैं अतः दोनों ही एकान्तवाद असत् वाद हैं। दूसरे से सापेक्ष न रहता हुआ केवल सामान्य या केवल विशेष खरगोश के सींग की तरह सिद्ध नहीं किया जा सकता ।।५६ ।। एकान्तवाद की आपत्ति एवं परिहार परस्पर निरपेक्ष (अमिलित) सामान्य और विशेष के स्वरूप का, यानी उन के स्वतन्त्र विषय का निरूपण कर के ५७ वी गाथा में उस का निराकरण करते हुए सूत्रकार कहते हैं - गाथार्थ :- द्रव्यार्थिकनय का वाच्यार्थ 'सामान्य' है, पर्यायार्थिकनय का वाच्यार्थ विशेष है। इन का एक एक रूप से प्रदर्शन होने पर अनेकान्तवाद का अतिक्रमण हो जाता है। (अथवा 'परस्परसापेक्षरूप से प्रदर्शित ये दोनों, एकान्तवाद का निराकरण कर देते हैं' - ऐसा दूसरा अर्थ भी उत्तरार्ध व्याख्या में बताया गया है।) ||५७।। ____ व्याख्यार्थ :- द्रव्यास्तिकनय का वाच्यार्थ है विशेषनिरपेक्ष सामान्य, और पर्यायास्तिक का वाच्यार्थ है अनुस्यूताकार (= अनुगताकार = समानाकार) से अलिप्त ऐसा विशेष । ये दो नय अपने अपने विषय को यानी सामान्य और विशेष को एक-दूसरे से सर्वथा निरपेक्ष एक मात्र अपने ही विषय को प्रदर्शित करते है; अथवा ये दो नय अपने सामान्य-विशेष विषयों को परस्पर प्रधानरूप से, अर्थात् अवधारण के साथ अपना ही विषय सत्य है इस ढंग से प्रदर्शित करते हैं- दूसरे का अपलाप करते हैं, अत एव वे सत्यवादस्वरूप अनेकान्तवाद, जिसे ग्रन्थकार ने “विभज्यवाद' कहा है, उस का अतिक्रमण कर जाते हैं क्योंकि स्वयं असत्यस्वरूप हैं। विभज्यवाद यानी हर एक वस्तु का विभिन्न दृष्टिकोण से विभजन यानी विवेचन करके किया जाने वाला वाद अर्थात् अनेकान्तवाद । एकान्तवाद में उन दोनों नयों का विषय असत्य इसलिये हैं कि विशेष को साध्य बनाया जाय तो उस का अनुगम शक्य नहीं है, सामान्य को साध्य किया जाय तो सिद्धसाधनता होने से हेतुप्रयोग निष्फलता प्राप्त करता है, यदि दोनों को प्राधान्य (अवधारण के साथ इतर निरपेक्ष स्वमात्र को महत्त्व) देकर साध्य किया जाय तो दोनों पक्ष में कहे हुए दोष प्रसक्त होंगे, यदि अनुभव को साध्य करे तो वहाँ उभय का अभाव साध्य ही नहीं हो सकेगा, अतः एकान्तवाद में एक भी पक्ष में साध्य-संगति ही नहीं की जा सकती। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy