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पञ्चमः खण्डः - का० ५६
२७३ अवस्तुरूपत्वात् साध्येनाऽप्रतिबद्धत्वात् असिद्धत्वाच न हेतुः। तस्मात् पदार्थान्तरानुवृत्तव्यावृत्तरूपमात्मानं बिभ्रद् एकमेव पदार्थस्वरूपं प्रतिपत्तुर्भेदाभेदप्रत्ययप्रसूतिनिबन्धनं हेतुत्वेनोपादीयमानं तथाभूतसाध्यसिद्धिनिबन्धनमभ्युपगन्तव्यम् । न च यदेव रूपं रूपान्तराद् व्यावर्त्तते तदेव कथमनुवृत्तिमासादयति, यच्चानुवर्त्तते तथ् कथं व्यावृत्तिरूपतामात्मसात् करोति इति वक्तव्यम् भेदाभेदरूपतया अध्यक्षतः प्रतीयमाने वस्तुस्वरूपे विरोधाऽसिद्धेरित्यसकृद् आवेदितत्वात्।
किञ्च, एकान्तवाद्युपन्यस्तहेतोः किं सामान्यं साध्यं आहोस्विद् विशेषः ? उत उभयं परस्परविविक्तम् उतस्विद् अनुभयमिति विकल्पाः। तत्र न तावत् सामान्यम् केवलस्य तस्याऽसम्भवात् अर्थक्रियाकारित्वविकलत्वाच्च । नापि विशेषः तस्याऽननुयायित्वेन साधयितुमशक्यत्वात् । नापि उभयम् उभयदोषाऽनतिवृत्तेः। नाप्यनुभयम् तस्याऽसतो हेत्वव्यापकत्वेन साध्यत्वाऽयोगात् ।
एतदेवाह गाथापश्चार्धेन ‘अन्योन्यप्रतिकृष्टौ' प्रतिक्षिप्तौ 'द्वावपि एतौ' सामान्य-विशेषकान्तौ असद्वादाविति । इतरविनिर्मुक्तस्यैकस्य शशशृंगादेरिव साधयितुमशक्यत्वात् ।।५६ ।। बनायेंगे ऐसा कह नहीं सकते, क्योंकि वास्तव में यहाँ अनुभय जैसी कोई चीज ही असत् है। अनुभय यानी न सामान्य न विशेष । किन्तु इन दोनों से अतिरिक्त तीसरा पक्ष न होने से सामान्य के निषेध से विशेष का विधान होगा और विशेष के निषेध से सामान्य का विधान होगा, किन्तु इस से अन्य कोई अनुभय होता नहीं। इस लिये अनुभय को हेतुरूप में प्रस्तुत नही कर सकते । बुद्धि से कल्पित सामान्य वस्तुरूप नहीं होता है, अतः वह साध्य से अविनाभावसम्बन्धशाली भी नहीं होता। वैसा सामान्य असिद्ध होता है अतः उस को हेतु नहीं किया जा सकता।
हेतु वही पदार्थ हो सकता है जिस की आत्मा अन्यपदार्थ की अनुवृत्ति एवं व्यावृत्ति उभय से गर्भित स्वरूपवाली हो, ऐसा पदार्थ ही ज्ञाता को भेदप्रतीति और अभेदप्रतीति का मूल निमित्त हो सकता है। ऐसे पदार्थ को हेतु के रूप में प्रयुक्त करने से स्वव्यापक साध्य की सिद्धि के लिये समर्थ हो सकता है।
प्रश्न :- पदार्थ का स्वरूप यदि अन्यपदार्थ से व्यावृत्तिवाला होगा तो वही स्वरूप अन्यपदार्थ से अनुवृत्तिवाला भी कैसे हो सकता है ? तथा जो अनुवृत्तिवाला है वह व्यावृत्तिवाला कैसे हो सकता है ? ।
उत्तर :- जब वस्तु का स्वरूप कथंचिद् भेद-अभेद उभयस्वरूप प्रत्यक्षप्रतीतिगोचर होता है तब उस में विरोध की शंका को अवकाश ही नहीं रहता। यह तथ्य पहले बार बार कहा जा चुका है, कि दूर से जो वृक्षसामान्य के रूप में दिखाई देता है वही निकट में जाने पर निम्ब या आम्रवृक्ष के विशेषरूप में दिखाई देता है।
* साध्य में चतुष्कोटि अनुपपत्ति * जैसे हेतु के लिये सामान्य-विशेष आदि विकल्प कहे गये हैं वैसे साध्य के लिये भी चार विकल्प प्रस्तुत हैं। एकान्तवादी के द्वारा उपन्यस्त हेतु का साध्य क्या होगा ? सामान्य या विशेष ? परस्पर निरपेक्ष तदुभय या अनुभय ? यहाँ प्रथम विकल्प असत् है क्योंकि केवल विशेषविनिर्मुक्त सामान्य असम्भव है, असत् है, अत एव किसी भी अर्थक्रिया के प्रति निरर्थक है। विशेषरूप भी साध्य नहीं हो सकता क्योंकि वह अन्यत्र दृष्टान्तादि में अनुगत न होने से उस के साथ व्याप्ति गृहीत नहीं होने पर उस का साधन अशक्य है। दोनों पक्षों के दूषण मिल कर उभय पक्ष में शामिल हो जाने से परस्पर निरपेक्ष उभय पक्ष भी अनुचित है। अनुभय पक्ष तो असत् ही है, असत् में हेतु की व्यापकता न होने से वह साध्य ही नहीं हो सकता।
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