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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ष्फला सामान्यकल्पना इति व्यक्त्यतिरिक्तस्य सामान्यस्याभावादसिद्धस्तल्लक्षणो हेतुः इति कथं ततः साध्यसिद्धिः ?
अथ व्यक्त्यव्यतिरिक्तं सामान्यं हेतुः तदपि असंगतमेव व्यक्त्यव्यतिरिक्तस्य व्यक्तिस्वरूपवद् व्यक्त्यन्तराननुगमात् सामान्यरूपतानुपपत्तेः, व्यक्त्यन्तरसाधारणस्यैव वस्तुनः ‘सामान्यम्' इत्यभिधानात्, तत्साधारणत्वे वा न तस्य व्यक्तिस्वरूपाऽव्यतिरिच्यमानमूर्त्तिता, सामान्यरूपतया भेदाऽव्यतिरिच्यमानस्वरूपस्य विरोधात् । तन्न व्यक्त्यव्यतिरिक्तमपि सामान्यं हेतुः व्यक्तिस्वरूपवत् असाधारणत्वेन गमकत्वाऽयोगात् ।
Bअत एव न व्यक्तिरूपमपि हेतुः।
न चोभयं परस्पराननुविद्धं हेतुः उभयदोषप्रसंगात् । न अनुभयम् अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकाभावे द्वितीयविधानात् अनुभयस्याऽसत्त्वेन हेतुत्वाऽयोगात् । बुद्धिप्रकल्पितं च सामान्यम् का अन्य व्यक्ति में प्रवेश अशक्य हो जायेगा। तथा, एक व्यक्ति में ही समाविष्ट हो जानेवाला सामान्य सामान्यरूप ही नहीं रहेगा, अर्थात् सर्वव्यक्ति साधारण न हो कर वह एक व्यक्ति में रहनेवाला असाधारण हो जायेगा, फलतः उस से अनुगत प्रतीति भी नहीं हो सकेगी। इस स्थिति में सामान्यस्वरूप कहा गया हेतु सामान्यात्मक नहीं किन्तु पक्षमात्रवृत्ति हो जाने से असाधारण अनैकान्तिक दोषग्रस्त हो जायेगा। ___दूसरी बात यह है कि व्यक्ति का स्वरूप क्या है ? यदि स्वरूपतः व्यक्ति असाधारणरूप ही है तब लाखो प्रयत्न से स्वभिन्न साधारण (सामान्य) का योग कराने पर भी व्यक्ति साधारणस्वरूप का अंगीकार नहीं कर पायेगी क्योंकि वस्तु के मूल स्वरूप का परिवर्तन नहीं हो सकता। फलतः सामान्य की कल्पना निरर्थक रह जायेगी, क्योंकि असाधारण पदार्थ अन्य के सहयोग से भी साधारणात्मक बन नहीं सकती। यदि व्यक्ति स्वयं साधारणात्मक है तो भी सामान्य की कल्पना निरर्थक रहेगी, (क्योंकि अब उस की जरूर ही नहीं रही)। निष्कर्ष, व्यक्तियों से पृथक् सामान्य का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं है, अतः सामान्य रूप हेतुपक्ष में हेतु ही असिद्ध हो जायेगा, फिर उस से साध्यसिद्धि की आशा ही क्या रखना ?!
यदि दूसरे पक्ष में व्यक्ति से अभिन्न सामान्य को हेतु बनाया जायेगा तो वह भी संगत नहीं होगा, क्योंकि व्यक्ति का स्वरूप जैसे अन्यव्यक्ति-अनुगत नहीं होता वैसे ही व्यक्ति से अभिन्न सामान्य भी व्यक्तिस्वरूप की तरह अन्यव्यक्ति-अनुगत नहीं हो सकता, तब उस में सामान्यरूपता ही दुर्घट रहेगी। जो अन्यव्यक्तिसाधारण हो वही सामान्य कहा जा सकता है। यदि व्यक्तिअभिन्न सामान्य को अन्यव्यक्ति-अनुगत मानेंगे तो तथाविध सामान्य की मूर्ति यानी आत्मस्वरूप, व्यक्ति से अव्यतिरिक्तता का अनुभव नहीं कर सकेगा. क्योंकि सामान्यरूपता और व्यक्ति से अव्यतिरिक्तरूपता, इन दोनों में विरोध है। निष्कर्ष, व्यक्ति से अभिन्न सामान्य कहीं भी हेतु नहीं बन सकता, क्योंकि जैसे व्यक्ति का स्वरूप असाधारण होता है वैसे व्यक्ति-अभिन्न सामान्य भी असाधारण होने से अनैकान्तिक हो जाने से साध्य-साधक नहीं बन सकता। __Bयही कारण है कि विशेषात्मक व्यक्ति भी हेतु की भूमिका नहीं निभा सकता क्योंकि वह भी असाधारण है।
* सामान्य-विशेष उभय या अनुभय में हेतुत्व दुर्घट * एक-दूसरे से मिले हुए सामान्य-विशेष उभय भी साध्यसाधक हेतु बन नहीं सकते, क्योंकि जो दोष प्रत्येक पक्ष में हैं वे सब उभय पक्ष में मिल कर सिर उठायेंगे। उभय से विपरीत यानी अनुभय को हेतु
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