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पञ्चमः खण्डः - का० ५९ न च कार्यानुभावानन्तरभाविना स्मरणेन कार्यकारणभावोऽनुसंधीयत इति वक्तव्यम्, अनुभूत एव स्मरणप्रादुर्भावात् । न च प्रतिबन्धः केनचिदनुभूतः तस्योभयनिष्ठत्वात् उभयस्य च पूर्वापरकालभाविनः एकेनाग्रहणात् । न च कार्यानुभवानन्तरभाविनः स्मरणस्य कार्यानुभवो जनकः, तदनन्तरं स्मरणस्याभावात् । न च क्षणिकैकान्तवादे कार्यकारणभाव उपपत्तिमान् इत्युक्तम् । न च सन्तानादिकल्पनाप्यत्रोपयोगिनी। न च स्मरणकालेऽतीततद्विषयस्मरणमात्रं प्रतीयतेऽपि तु तदनुभविताऽपि, 'अहमेवमिदमनुभूतवान्' इत्यनुभवित्राधारानुभूतविषयस्मृत्यध्यवसायादेकाधारे अनुभव-स्मरणे अभ्युपगन्तव्ये, तदभावे तथाऽध्यवसायानुपपतेः। न चानुभवस्मरणयोरनुगतचैतन्याभावे तद्धर्मतया प्रतिपत्तिर्युक्ता। न हि यत्प्रतिपत्तिकाले यन्नास्ति तत्तद्धर्मतया प्रतिपत्तुं युक्तम्, बोधाभावे ग्राह्य-ग्राहकसंवित्तित्रितयप्रतिपत्तिवत् । प्रत्यक्ष ही पैदा होता है, न कि निर्विकल्पक, अतः ऊपर कहा हुआ समाधान दुर्घट है।
* क्षणिकवाद में कार्य-कारणभाव का ग्रहण दुष्कर * क्षणिकवादी :- कार्यानुभाव होने के बाद जो कारण और कार्य का अवगाही स्मरण होगा उससे कार्यकारणभाव स्वरूप प्रतिबन्ध का अनुसंधान हो जायेगा।
अनेकान्तवाद :- ऐसा मत कहिये, क्योंकि यह सर्वमान्य नियम है कि पूर्वानुभूत का ही स्मरण होता है। पहले कारणक्षण में कारण वस्तु का स्वतन्त्र अनुभव हुआ है न कि कारणत्वरूप से, बाद में कार्यक्षण में कार्य का स्वतन्त्र अनुभव हुआ है, न कि कार्यत्वरूप से । अर्थात् पृथक् पृथक् कारण वस्तु या कार्य वस्तु का अनुभव होने पर भी कार्यकारणभावात्मक प्रतिबन्ध का अनुभव तो कभी नहीं हुआ। प्रतिबन्ध उभयवृत्ति है, उभय का एक साथ अनुभव किसी भी एक क्षण में किसी एक ज्ञान से नहीं हुआ है क्योंकि कारण और कार्य पूर्वापरकालभावि होते हैं न कि समानकालभावि । अतः स्मरण में प्रतिबन्ध का भान शक्य ही नहीं है।
दूसरी बात यह है कि क्षणिकवाद में स्मरण से प्रतिबन्ध का तो क्या, कार्य का भी ग्रहण नहीं होता, क्योंकि क्षणिक वाद में ज्ञान और विषय का जन्य-जनकभाव ही कार्य-कारणभाव होता है, कार्यानुभव के बाद स्मरण तो संस्कार के द्वारा चिरकाल के बाद होता है, उस स्मरण का जनक कार्य नहीं है क्योंकि कार्य के ठीक उत्तरक्षण में स्मरण नहीं होता। उपरांत, यह भी कह चुके हैं कि क्षणिकवाद में, कार्योत्पत्तिक्षण में कारण की उपस्थिति न होने से 'यह इस का कारण, यह इस का कार्य' ऐसा कारण-कार्य भाव भी संगत नहीं हो सकता। यदि ऐसा समाधान कर ले कि एक सन्तान में पूर्वक्षण कारण और उत्तर क्षण कार्य होता है - तो ऐसा समाधान निष्फल है क्योंकि संतान कोई पारमार्थिक वस्तु ही नहीं है, कल्पित संतान से बैठाया गया कारण-कार्यभाव भी कल्पित ही होगा न कि पारमार्थिक।
* क्षणिकवाद में अनुभवबाध * वास्तव में क्षणिकवाद भी असंगत है, क्योंकि स्मरणकाल में सिर्फ अतीत विषय ही भासित नहीं होता, किन्तु उस के साथ अनुभवकर्ता भी प्रतीत होता है जैसे कि – 'मैंने ही ऐसा अनुभव किया था।' यहाँ 'मैं' इस उल्लेख से स्मृति में अनुभवकर्ता का भान स्पष्ट है। इस अनुभव के बल पर यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि स्मरण और अनुभव का आधार एक ही है, क्योंकि अनुभवकर्तास्वरूप एक आधार में ही अनुभूत विषय की स्मृति का अध्यवसाय होता है, यदि अनुभव-स्मृति का एक आधार न माना जाय तो समानाधिकरण स्मृति का अध्यवसाय हो नहीं सकता, लेकिन होता जरूर है।
दूसरी बात यह है कि अनुभव और स्मृति में अगर एक अनुगत चैतन्य नहीं मानेंगे तो उसके (चेतन
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