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________________ पञ्चमः खण्डः - का० २ ___ एकान्तेन निर्गता विशेषा यस्मात् सामान्यात् तद् विशेषविकलं सामान्यं वदन् द्रव्यस्य पर्यायान् ऋजुत्वादीन् निवर्त्तयति; ऋजु-वक्रतापर्यायात्मकाङ्गुल्यादिद्रव्यस्य अध्यक्षादिप्रमाणप्रतीयमानस्य विनिवृत्तिप्रसक्तरध्यक्षादिप्रमाणबाधापत्तिः । तथा, एकान्तविशेषं सामान्यरहितं वदन् पर्यायेभ्यो विशेषेभ्यो द्रव्यं निवर्तयति, एवं चांगुल्यादिद्रव्याऽव्यतिरिक्तऋजु-वक्रतादिविशेषस्य प्रत्यक्षाद्यवगतस्य निवृत्तिप्रसक्तिः । न चाऽबाधितप्रमाणविषयीकृतस्य तथाभूतस्य तस्य निवृत्तिर्युक्ता, सर्वभावनिवृत्तिप्रसक्तेः अन्यभावाभ्युपगमस्यापि तनिबन्धनत्वात् तत्प्रतीतस्याप्यभावे सर्वव्यवहाराभाव इति प्रतिपादितम् । अत्राह - 'सामण्णम्मि.' इत्यादिकाण्डं नाऽऽरब्धव्यम् उक्तार्थत्वात् । यतो न तावदनेन वस्तु अनेकान्तात्मकं प्रतिपाद्यते ‘एगदवियम्मि' [प्र.का गा०३१] इत्यादिना ‘इहरा समूहसिद्ध' - [प्र. का०, गा० २७] इत्यादिना च तस्य प्रतिपादितत्वात् । तथा, 'उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं' [प्र. का० गा० १२] इत्यनेन लक्षणद्वारेण सर्वस्य सतः अनेकान्तात्मकत्वं प्रदर्शितमेव । अथ का और पर्यायों से द्रव्य का निवर्तन (= वियोजन) कर बैठता है ॥२॥ व्याख्यार्थ : निर्विशेष यानी जिस में अपृथग्भाव से विशेष मौजूद नहीं है ऐसा, अर्थात् सामान्य । जब वादी ऐसे एकान्ततः सामान्य का प्रतिपादन करता है तब उस में यह दोष सिर उठाता है कि ऋजुता आदि पर्याय द्रव्य का त्याग कर जाते हैं। मतलब यह है कि सभी को प्रत्यक्षादि प्रमाण से यह भासित होता है कि अंगुली आदि द्रव्य कभी ऋजुतापर्याय से तो कभी वक्रतापर्याय से अपृथग्भूत अथवा अभिन्न होता है । किन्तु जब प्रवक्ता विशेपर्यायशून्य द्रव्यसामान्य के अस्तित्व की घोषणा करता है तब प्रत्यक्षादि से प्रसिद्ध ऋजुतादिपर्यायविशिष्ट अंगुली द्रव्य को तो अपना मुँह छिपाना पडेगा । इस में प्रत्यक्षादिप्रमाणबाधरूप अन्याय की आपत्ति सिर उठाती है । इस प्रकार, जो प्रवक्ता सामान्यशून्य एकान्त विशेष के अस्तित्व को घोषित करता है वह पर्यायों (विशेषों) से द्रव्य का बहिष्कार कर बैठता है । फलतः अंगुली आदि द्रव्य से अपृथग्भूत-अभेदापन्न ऋजुता-वक्रतादि पर्यायों को अपना मुँह छिपाना पडेगा, भले ही वे प्रत्यक्षादि प्रमाण से प्रसिद्ध हो । सच कहें तो, जो निर्बाध प्रमाणगोचर वस्तु है जैसे द्रव्यमिलित पर्याय और पर्यायमिलित द्रव्य, उन को कहीं मुँह छिपाना पडे यह जायज नहीं है । कारण, वैसी स्थिति में समस्त प्रमाणगोचर पदार्थसमूह को सामूहिक विश्वत्याग करना होगा, क्योंकि द्रव्य-पर्याय की तरह अन्य पदार्थों का स्वीकार भी प्रमाणाधीन होता है, जब प्रमाणसिद्ध वस्तु को भाग निकलना पडेगा तो प्रमाणाधीन समूचा व्यवहार लुप्त हो जायेगा । * प्रस्तुत काण्ड का आरम्भ व्यर्थ होने की शंका * शंका :- ‘सामण्णम्मि विसेसो०' इस गाथा से ले कर आप जिस कांड का श्रीगणेश कर रहे हो वह बिनजरूरी है क्योंकि उस के अर्थ का प्रतिपादन हो चुका है। यदि आप इस कांड से वस्तु की अनेकान्तात्मकता का निरूपण करना चाहते हैं तो वह निरर्थक है क्योंकि वह तो पहले कांड की एगदवियम्मि० इस ३१वीं गाथा से, तथा उसी कांड की इहरा समूहसिद्ध० उस २७ वी गाथा से कहा जा चुका है । उपरांत, उसी कांड की १२ वी गाथा के उत्तरार्द्ध में “उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं" इस लक्षण कथन से समूचे सत् पदार्थ अनेकान्तात्मक होने का कहा जा चुका है । यदि तृतीयकांड से आप चाहते हैं कि प्रमाण के विषय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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