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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सत्ताख्यस्य द्रव्यस्य पृथिव्याख्यां परिणतिमन्यां सत्तारूपाऽपरित्यागेनैव वृत्तां दर्शयति; विशेषाभावे सामान्यस्याप्यन्यथाभावप्रसक्तेः । यद् यदात्मकं तत् तदभावे न भवति, घटाद्यन्यतमविशेषाभावे मृद्वत्, विशेषात्मकं च सामान्यमिति तदभावे तस्याप्यभावः । तथा, तकं च विशेषम् द्वितीयपक्षे सामान्यात्मनि नियमयति - विशेषः सामान्यात्मक एव तदभावे तस्याप्यभावप्रसंगात्, यतः सामान्यात्मकस्य विशेषस्य सामान्याभावे, घटादेरिव मृदभावे, न भावो युक्तः ॥१॥
* एकान्तभेदपक्षे दोषनिरूपणम् * न च 'विशेषाद् व्यतिरिक्तं सामान्यमेकान्ततः, तस्माद् वा विशेषा नियमतो भिन्ना' इत्यभ्युपगन्तव्यम् अध्यक्षादिप्रमाणविरोधात् इत्याह -
एगंतणिव्विसेसं एयंतविसेसियं च वयमाणो । दव्वस्स पज्जवे, पज्जवाहि दवियं णियत्तेइ ॥२॥
साथ ही किया जाता है । मतलब, सामान्यद्योतक ‘अस्ति' के साथ अभेदान्वय से ही 'द्रव्यम्' इस प्रकार विशेष का निरूपण किया जाता है । तथा, 'घटः अस्ति' इस प्रकार के वचनप्रदर्शन में घटादि विशेषपक्ष का निर्देश होने पर ‘अस्ति' इस वचन का यानी सत्तासामान्य का, (नाम और नामवत् यानी नामार्थ में अभेद होता है इस न्याय से कहा है सत्तासामान्य का) निवेश यानी प्रदर्शन अभेदान्वय से किया जाता है । इस प्रकार, सामान्य का विशेष के साथ और विशेष का सामान्य के साथ अभेदान्वय से निरूपण यह सूचित करता है कि द्रव्य का कुछ और ही परिणाम होता है । मतलब, सत्ता यह द्रव्य का ही नाम है और सत्तानामक द्रव्य का घटादिमय पृथ्वीसंज्ञक अभिन्न परिणाम होता है जो सत्तास्वरूप का परिहार किये बिना ही द्रव्य से संलग्न रहता है । तात्पर्य यह है कि विशेष के न होने पर सत्तास्वरूप सामान्य में भी अन्यथाभाव यानी असत्पन का प्रवेश हो जाता है ।
ऐसा नियम है कि जो जिस स्वरूप में होता है वह उसके न होने पर नहीं होता है, जैसे - मिट्टी घटपिण्डादि किसी एक विशेष अवस्थामय ही होती है, अत: विशेषावस्था के न होने पर मिट्टी भी नहीं होती है।
सामान्य से अभिन्न विशेष का निर्देश, जैसे सामान्य में विशेष का नियमन कर के द्रव्य सामान्य में पृथ्वीरूप परिणामविशेष का अभेद सूचित करता है; वैसे ही विशेषपक्ष में सामान्य का अभेद-निर्देश विशेष में सामान्य का नियमन करता है। नियमन इस प्रकार कि विशेष सामान्य रूप ही होता है, क्योंकि सामान्यरूपता के विरह में विशेष भी असत् बन जाता है । कारण, घटादिविशेष मिट्टीसामान्यरूप होने से मिट्टी के विरह में घट नहीं होता वैसे ही विशेष भी सामान्यात्मक होने के कारण, सामान्य के विरह में विशेष का होना युक्तिसंगत नहीं है ॥१॥
* एकान्तभेदपक्ष में प्रमाणविरोध * “सामान्यपदार्थ विशेषपदार्थ से एकान्तभिन्न है, अथवा विशेष पदार्थ सामान्य पदार्थ से एकान्तभिन्न है'' - ऐसा मानना अच्छा नहीं, क्योंकि उस में प्रत्यक्षादि कई प्रमाणों का विरोध खडा हो जाता है । इस तथ्य को ग्रन्थकार दूसरी गाथा से प्रकट करते कहते हैं -
मूलगाथा-शब्दार्थ : एकान्त निर्विशेष (यानी सामान्य) तथा एकान्त विशेष को कहनेवाला, द्रव्य से पर्यायों
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