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॥ श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥ श्रीसिद्धसेनदिवाकरसूरिप्रणीतं
॥ सन्मति-तर्कप्रकरणम्
श्रीअभयदेवसूरिप्रणीता व्याख्या तत्त्वबोधविधायिनी हिन्दीविवेचनसमलंकृता
पञ्चमः खण्डः तृतीय: काण्ड:
* सामान्य-विशेषयोः परस्परानुवेधः * [त०वि०] एवं दर्शन-ज्ञानात्मनोः परस्पराविनिर्भागरूपतां प्रतिपाद्य इदानीं सामान्यविशेषयोरन्योन्यानुविद्धं स्वरूपमुपदर्शयन्नाह - __सामण्णम्मि विसेसो विसेसपक्खे य वयणविणिवेसो ।
दव्वपरिणाममण्णं दाएइ तयं च णियमेइ ॥१॥ सामान्ये = 'अस्ति' इत्येतस्मिन् विशेषो = 'द्रव्यं' इत्ययम्, तथा विशेषपक्षे च घटादौ 'अस्ति' इत्येतस्य वचनस्य नामनामवतोरभेदात् सत्तासामान्यस्य विनिवेशः प्रदर्शनम् द्रव्यपरिणतिमन्यां =
* सामान्य एवं विशेष का परस्पर अविभक्त्तस्वरूप * ग्रन्थकार श्रीसिद्धसेनदिवाकरजी ने सम्मति तर्कप्रकरण के द्वितीय काण्ड में काफी परामर्श कर के यह फलित किया कि दर्शनात्मा और ज्ञानात्मा परस्पर अपथक यानी अभिन्न ही है. उन में कोई विनिर्भाग = जदाई नहीं है। ततीय कांड में वे यह दिखाना चाहते हैं कि उसी तरह सामान्य और नहीं है, ये दोनों परस्पर मिले-जुले ही हैं, एक-दूसरे से दृढ अभेदभाव से संलग्न हैं -
मूलगाथा शब्दार्थ :- सामान्य में विशेष और विशेषपक्ष में वचननिवेश यह सूचित करता है कि द्रव्यपरिणति (कुछ) और ही है, तथा विशेष का नियमन करती हैं ॥१॥
व्याख्या विशेषार्थ :- इस गाथा का स्पष्टार्थं दिखाते हुए व्याख्याकार श्री अभयदेवसूरिजी कहते हैं - ‘अस्ति द्रव्यम्' यहाँ ‘अस्ति' इस प्रकार सत्ता सामान्य का निर्देश होने पर 'द्रव्यम्' इस प्रकार विशेष का निर्देश साथ
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