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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् त्वाद् बाधामस्योपदर्शयितुं क्षमौ। न च हेतुद्वयसंनिपातादेकत्र धर्मिणि संशयोत्पत्तेस्तज्जनकत्वेनास्यानैकान्तिकता, यतो न संशयहेतुत्वेनानैकान्तिकत्वम् इन्द्रियसंनिकर्षादेरपि तथात्वप्रसक्तेः। न च तत्त्वानुपलब्धिर्विशेषस्मृत्यादिशून्या संशयकारणम् न च तत्सहिताया अस्या हेतुत्वम् केवलाया एव तत्त्वेनोपन्यासात् । न च संदिग्धे विषये भ्रान्तपुरुषेण निश्चयार्थमुपादीयमानाया अस्याः संदेहहेतुता युक्ता। भवतु वा कथंचिद् अतस्संशयोत्पत्तिस्तथापि अनैकान्तादस्य विशेषः । स हि सपक्ष-विपक्षयोः समानः अयं तु तद्विपरीतः साध्यद्वयवृत्तित्वात् तु प्रकरणसमः । न चाऽसम्भवः, अस्यैवंविधसाधनप्रयोगस्य भ्रान्तेः सद्भावात् ।
अथाऽस्याऽसिद्धेऽन्तर्भावः नित्यत्वादिनो नित्यधर्मानुपलब्धेः इतरस्य चेतरधर्मानुपलब्धेरसिद्धत्वात् । असदेतत् – यतश्चिन्तासम्बन्धिपुरुषेण प्रकरणसमस्य हेतुत्वेनोपन्यासः तस्य च तत्सम्बन्धिनैव कथमितरेणा
__* प्रकरणसम की स्वतन्त्र दोषता का समर्थन * जिन के मत में, उक्त तीन लक्षणों के होने पर अविनाभाव की इतिश्री मान ली जाती है उन के मत में प्रकरणसम हेतु में असद्हेतुत्व यानी हेत्वाभास दिखाना शक्य नहीं है।
प्रकरणसम हेतु को कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास कहना भी शक्य नहीं है क्योंकि उस का विषय यानी साध्य किसी अन्य प्रमाण से बाधित नहीं है। जिन दो पक्षों के बारे में प्रकरणचिन्ता की जाती है उन दो के लिये यहाँ अन्यतरानुपलब्धि हेतु प्रस्तुत होता है, और वे दो पक्ष तो संदिग्ध रहते हैं, अतः संदिग्ध विषयवाले दो पक्ष हेतु को बाध का बलि नहीं बना सकता। यदि यह कहा जाय कि - अनैकान्तिक हेतु का कार्य है पक्ष में साध्य का संदेह खडा कर देना, यहाँ एक ही शब्दात्मक धर्मी में अन्यतरानुपलब्धि के दो अंशभूत दो हेत जब उपस्थित होते हैं तब साध्य के बारे में संदेह पैदा कर देते हैं अतः यह हेतु अनैकान्तिक ही होगा। - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि संशयजनकत्व अनैकान्तिक का लक्षण नहीं है, अन्यथा इन्द्रियसंनिकर्षादि भी अनैकान्तिक कहे जायेंगे क्योंकि वह भी संशयजनक होता है। यह ज्ञातव्य है कि अन्यतर पक्षगत विशेष का स्मरण न हो उस दशा में अन्यतरानुपलब्धि संदेहहेतु नहीं बनती है। दूसरी ओर अगर विशेष का स्मरण रहे तब तो अन्यतरानपलब्धि हेत् भी नहीं बन सकती, विशेषस्मरण न रहे तभी केवल अन्यतरानुपलब्धि का हेतु के रूप में प्रयोग किया जाता है। ऐसी स्थिति में, जब कि नित्यत्व या अनित्यत्व का संदेह मौजूद है, तब कोई भ्रान्त महानुभाव निश्चय के लिये ही अन्यतरानुपलब्धि का प्रयोग करता है, अतः उस का संदेहजनक मानना अयुक्त है। (संदेह तो पहले से ही है।)
अथवा कैसे भी यह मान लिया जाय कि वह संदेह की जनक है, तथापि अनैकान्तिक और प्रकरणसम में भेद रहेगा ही। अनैकान्तिक हेतु सपक्ष-विपक्ष उभयसाधारण होता है जब कि प्रकरणसम उस से विपरीत यानी सपक्षमात्रवृत्ति होता है। वह दोनों साध्यपक्षों में अन्यतर के रूप में रहता है, अतः वह अनैकान्तिक नहीं किन्तु प्रकरणसम ही कहा जायेगा। यदि कहें कि - इस तरह का हेतु हो ही नहीं सकता - तो यह गलत हैं क्योंकि भ्रान्ति से तथाविध हेतुप्रयोग का पूरा सम्भव है।
* अन्यतरानुपलब्धि हेतु का असिद्ध में अन्तर्भाव दुष्कर * यदि यह कहा जाय – प्रकरणसम हेतु का अन्तर्भाव असिद्ध हेत्वाभास में होना चाहिये, क्योंकि नित्यधर्मानुपलब्धि हेतु नित्यवादी के पक्ष में असिद्ध है और अनित्यधर्मानुपलब्धि हेतु अनित्यवादी के पक्ष में असिद्ध है। – यह
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