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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ५६ २५१ समता नानैकान्तिकता पक्षद्वयवृत्तितया तस्याभावात् । ननु यद्ययं पक्षद्वये वर्त्तते तदा साधारणानैकान्तिकः, अथ न प्रवर्त्तते कथमयं पक्षद्वयसाधकः स्यात् अतद्वत्तेरतत्साधकत्वात् । न, पक्षद्वये प्रकृतस्य वृत्त्यभ्युपगमात् । तथाहि - साधनकालेऽनित्यपक्षे एव नित्यधर्मानुपलब्धिर्वर्त्तते न नित्ये, यदापि नित्यत्वं साध्यं तदापि नित्यपक्ष एवानित्यधर्मानुपलब्धिर्वर्त्तते नाऽनित्ये । ततश्च सपक्षे एव प्रकरणसमस्य वृत्तिः, सपक्षविपक्षोश्चानैकान्तिकस्य, साध्यापेक्षया च पक्ष-सपक्ष-विपक्षव्यवहारः नान्यथा, तेन साध्यद्वयवृत्तिः उभयसाध्यसपक्षवृत्तिश्च प्रकरणसमः न तु कदाचित् साध्यापेक्षया विपक्षवृत्तिः। अनैकान्तिकस्तु विपक्षवृत्तिरपीत्यस्माद् अस्य भेदः। न तु रूपत्रययोगेऽपि अस्य हेतुत्वम् सप्रतिपक्षत्वात् । यस्य तु प्रतिबन्धपरिसमाप्ती रूपत्रययोगे, तेन प्रकरणसमस्य नाऽहेतुत्वमुपदर्शयितुं शक्यम् । न चास्य कालात्ययापदिष्टत्वम् अबाधितविषयत्वात् ययोर्हि प्रकरणचिन्ता तयोरयं हेतुः, न च तौ संदिग्धमें समानरूप से विद्यमान होता है तब वह संशय का हेतु बन जाता है, क्योंकि वह तीनों में साधारण होने से विरुद्ध यानी विपक्ष की विशेषता का यानी साध्यविपर्यय का स्मारक बन जाने से अनुमिति को रोक देता है। यही अनैकान्तिक है। प्रकरणसम हेतु वैसा नहीं है। कारण यह है कि - नित्यधर्मानुपलब्धि हेतु का भाव (अस्तित्व) अनित्य में ही होता है न कि विपक्षभूत नित्य में । तथा, अनित्यधर्मानुपलब्धि हेतु का भाव (अस्तित्व) नित्य में ही होता है न कि विपक्षभूत अनित्य में। इस प्रकार किसीभी एक पक्ष का हेतु विपक्षवृत्ति न होने से अनैकान्तिक दोष को अवकाश नहीं है, किन्तु प्रकरणसम एक स्वतन्त्र दोष को ही अवकाश है। सपक्ष विपक्ष दोनों पक्ष में रहनेवाला हेतु ही अनैकान्तिक होता है किन्तु प्रस्तुत में ऐसा नहीं है। प्रश्न :- अगर अन्यतरानुपलब्धि हेतु उभय पक्ष में यानी नित्यवादी के मत में और अनित्यवादी के मत में रहता है तब तो वह साधारणानैकान्तिक दोष से दष्ट ठहरेगा। यदि वह दोनों पक्ष में (यानी दोनों में से किसी भी एक पक्ष में) नहीं है तो वह दोनों पक्ष का (यानी किसी भी एक पक्ष का) साधक कैसे हो सकता है ? पक्ष में नहीं रहनेवाला धर्म उस पक्ष का साधक नहीं हो सकता। उत्तर :- उक्त दोष नहीं है क्योंकि अन्यतरानुपलब्धि दो अंश से घटित है और एक-एक अंश ले कर यह अन्यतरानुपलब्धि दोनों ही पक्ष में विद्यमान है, फिर भी कोई साधारणानैकान्तिक दोष नहीं है। कैसे यह देखिये - जब एक वादी अनित्यत्वसिद्धि कर रहा है तब नित्यधर्मानुपलब्धिस्वरूप अन्यतरानुपलब्धि हेतु सिर्फ अनित्यपक्ष में ही रहता है न कि नित्यपक्ष में। एवं, दूसरा वादी नित्यत्व सिद्ध करता है तब अनित्यधर्मानुपलब्धि हेतु सिर्फ नित्य पक्ष में ही रहता है न कि अनित्य पक्ष में। इस से यह स्पष्ट होता है कि प्रकरणसम हेतु सपक्ष में ही रहता है, जब कि जो अनैकान्तिक हेतु होता है वह सपक्ष-विपक्ष दोनों में रहता है। यह ज्ञातव्य है कि पक्ष, सपक्ष या विपक्ष के व्यवहार का मुख्य निमित्त 'साध्य का होना और नहीं होना' है, न कि 'हेतु या अन्य किसी का होना-नहीं होना'। इस से यह भेद स्पष्ट होता है कि अन्यतरानुपलब्धि प्रकरणसम हेतु दोनों वादी के भिन्न भिन्न साध्यवाले पक्ष में जरूर रहता है फिर भी पृथक् पृथक् दोनों साध्य के सपक्ष में ही रहता है न कि विपक्ष में। यानी किसी एक साध्य का उल्लेख लिया जाय तब हेतु विपक्षवृत्ति नहीं होता। जब कि अनैकान्तिक हेतु सपक्ष और विपक्ष दोनों में रहनेवाला है - अतः अनैकान्तिक से प्रकरणसम का भेद स्पष्ट हो जाता है। ___निष्कर्ष :- हेतु के तीन लक्षण पक्षवृत्तित्वादि सब अन्यतरानुपलब्धि हेतु में रहते हुए भी वह सद् हेतु इसी लिये नहीं हो सकता, क्योंकि यह हेतु सत्प्रतिपक्षित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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