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________________ २५० श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् नित्यं तत् नानुपलभ्यमानाऽनित्यधर्मकम् यथा घटादि । एवमन्यतरानुपलब्धेरुभयपक्षसाधारणत्वात् प्रकरणानतिवृत्तेर्हेत्वाभासत्वम् । न च निश्चितयोः पक्ष - प्रतिपक्षपरिग्रहेऽधिकारात् कथं चिन्तायुक्त एवं साधनोपन्यासं विदध्यात् इति वक्तव्यम्, यतोऽन्यदा संदेहेऽपि चिन्तासम्बन्धी पुरुषः अन्यतरानुपलब्धेः पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकान् अवगच्छन् तद्बलात् स्वसाध्यं यदा निश्चिनोति तदा द्वितीयस्तामेव स्वसाध्यसाधनाय हेतुत्वेनाऽभिधत्ते । यद्यतस्त्वत्पक्षसिद्धिः अत एव मत्पक्षसिद्धिः किं न भवेत् त्रैरूप्यस्य पक्षद्वयेऽपि अत्र तुल्यत्वात् । अथ नित्यत्वानित्यत्वैकान्तविपर्ययेणापि अस्याः प्रवृत्तेरनैकान्तिकता, उभयवृत्तिर्ह्यनैकान्तिकः न प्रकरणसमः। न, यत्र पक्ष - सपक्ष-विपक्षाणां तुल्यो धर्मो हेतुत्वेनोपादीयते तत्र संशयहेतुता साधारणत्वेन तस्य विरुद्धविशेषानुस्मारकत्वात्, न तु प्रकृत एवंविधः यतो नित्यधर्मानुपलब्धेरनित्य एव भावः न नित्ये। एवमनित्यधर्मानुपलब्धेर्नित्य एव भावः नाऽनित्ये । एवं चैकत्र साध्ये विपक्षव्यावृत्तेः प्रकरणसिद्ध करना चाहता है; तब दूसरा चिन्ताकारक पुरुष कह सकता है यदि इस ढंग से आप अनित्यत्व को सिद्ध करते हैं तो नित्यत्व भी इसी ढंग से सिद्ध हो सकता है क्योंकि अनित्य धर्मानुपलब्धिरूप अन्यतरानुपलब्धि हेतु नित्यत्व सिद्ध करने के लिये मौजूद है । देख लो शब्द नित्य है क्योंकि उस में कोई अनित्य पदार्थ का धर्म उपलब्ध नहीं होता । जिस में अनित्य पदार्थ का धर्म उपलब्ध नहीं होता वह नित्य देखा गया है जैसे आत्मा आदि द्रव्य । उस से उलटा (यानी व्यतिरेकी दृष्टान्त - ) जो नित्य नहीं होता उस में अनित्य के धर्म की अनुपलब्धि नहीं होती जैसे कि घडा आदि में । इस प्रकार यहाँ शब्द नित्य है या अनित्य इस चर्चा में दोनों वादी ओर से अन्यतरानुपलब्धि (नित्य धर्म की या अनित्यधर्म की अनुपलब्धि ) समानरूप से दोनों ही पक्ष में प्रयुक्त होने पर, प्रकरण चर्चा समाप्त होने के बदले जारी रहती है, अत एव इसे हेत्वाभास कहा जाता है । यदि यह प्रश्न हो जाय - 'एक पक्ष का या दूसरे पक्ष का ( प्रतिपक्ष का ) स्वीकार निश्चित अन्यतरानुपलब्धि के ऊपर ही अवलम्बित है, निश्चय रहे तभी वादी को उक्त प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त हो सकता है, किन्तु यहाँ तो अन्यतरानुपलब्धि निश्चित ही नहीं है, फिर कैसे वह इस प्रकार के साधन को प्रस्तुत कर सकते है ?' तो इस का उत्तर यह है कि कभी कभी संदेह रहते हुए भी चिन्ताकारक वादी पुरुष को जब किसी एक अनुपलब्धि में पक्षवृत्तित्व, अन्वय (सपक्षवृत्तित्व) और व्यतिरेक यानी विपक्षव्यावृत्ति का निश्चितरूप से भान हो जाता है तब उस के बल पर वह अपने इष्ट साध्य का भी निश्चय करने को सज्ज हो जाता है उस के सामने तब दूसरा वादी उसी ढंग से अन्यतरानुपलब्धि को अपने इष्ट साध्य की सिद्धि के लिये हेतु के रूप में प्रस्तुत कर देता है। उस में उस का अभिप्राय यह है कि अगर तथाविध अन्यतरानुपलब्धि से वादी का पक्ष सिद्ध हो सकता है तो अन्यतरानुपलब्धि से ही मेरा ( प्रतिवादी का) पक्ष भी सिद्ध हो सकता है क्योंकि दोनों ही मत में, हेतु में पक्षवृत्तित्वादि तीन लक्षण तुल्य है। Jain Educationa International * अन्यतरानुपलब्धि हेतु अनैकान्तिक ? शंकानिवारण * कोई विद्वान कहता है कि यह हेतु अनैकान्तिक ही है, क्योंकि अन्यतरानुपलब्धि की प्रवृत्ति नित्यत्व एकान्त के विपरीत अनित्यत्व की ओर अनित्यत्व एकान्त से विपरीत नित्यत्व की सिद्धि के लिये भी हो रही है। जो हेतु इस तरह दोनों पक्ष में रहता हो वह अनैकान्तिक होता है न कि प्रकरणसम । इस के सामने वादी का कहना है कि यह अनैकान्तिक नहीं है । जो हेतु पक्ष - सपक्ष और विपक्ष तीनों For Personal and Private Use Only — - - www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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