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पञ्चमः खण्डः - का० ५६ अथ भवत्वयं दोषः येषां त्रैरूप्येऽविनाभावपरिसमाप्तिः, नास्माकं पञ्चलक्षणहेतुवादिनाम्, प्रकरणसमादेरपि हेत्वाभासत्वोपपत्तेः त्रैलक्षण्यसद्भावेऽप्यपरस्यासत्प्रतिपक्षत्वादेर्हेतुलक्षणस्याऽसम्भवेन तदाभासत्वसम्भवात् । 'यस्मात् प्रकरणचिन्ता स प्रकरणसमः' (न्यायद० १-२-७) इति प्रकरणसमस्य लक्षणाभिधानात् – प्रक्रियेते साध्यत्वेनाधिक्रियेते अनिश्चितौ पक्ष-प्रतिपक्षौ यौ तौ प्रकरणम्, तस्य चिन्ता संशयात् प्रभृति आनिश्चयादालोचनस्वभावा यतो भवति स एव तन्निश्चयार्थं प्रयुक्तः प्रकरणसमः। पक्षद्वयेऽपि तस्य समानत्वात् उभयत्रापि अन्वयादिसद्भावात् ।। ____ तथाहि तस्योदाहरणम् – 'अनित्यः शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेः अनुपलभ्यमाननित्यधर्मकं घटादि अनित्यं दृष्टम् यत् पुनर्नित्यं न तदनुपलभ्यमाननित्यधर्मकं यथाऽऽत्मादि' – एवं चिन्तासम्बन्धिपुरुषेण तत्त्वानुपलब्धेरेकदेशभूताया अन्यतरानुपलब्धेरनित्यत्वसिद्धौ साधनत्वेनोपन्यासे सति द्वितीयश्चिन्तासम्बन्धी पुरुष आह – यद्यनेन प्रकारेणानित्यत्वं साध्यते तर्हि नित्यतासिद्धिरप्यन्यतरानुपलब्धेस्तत्रापि सद्भावात् । तथाहि – नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेः अनुपलभ्यमानाऽनित्यधर्मकं नित्यं दृष्टमात्मादि, यत् पुनर्न
वादी :- जिन के मत में हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव उक्त तीन लक्षणों से ही निष्ठित हो जाता है उन के मत में तत्पुत्रत्व हेतु से श्यामत्व की सिद्धि का दोष होने दो। हम तो पाँच लक्षण से अलंकृत हेतु को ही सद्हेतु मानते हैं अतः हमारे मत में उस दोष को अवकाश ही नहीं है। हमारे मत में प्रकरणसम (सत्प्रतिक्षित) हेतु को भी हेत्वाभास ही माना जाता है। असत्प्रतिपक्षितत्व और अबाधितत्व ये और दो लक्षण हेतु के माने जाते हैं। उक्त तीन लक्षणों के होते हुए भी और दो लक्षण असत्प्रतिपक्षितत्वादि, उस तत्पुत्रत्व हेतु में सम्भव न होने से वह हेतु हेत्वाभास हो सकता है।
न्यायदर्शन में प्रकरणसम (सत्प्रतिपक्षित) हेतु का लक्षण कहा है – जिस से प्रकरणचिन्ता करनी पडे वह हेतु प्रकरणसम होता है। यहाँ ‘प्रकरण' शब्द का तात्पर्य है – जहाँ पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों ही अनिश्चित होने के कारण सिद्धि के लिये प्रतीक्षित किये जाते हैं वैसे पक्ष और प्रतिपक्ष उभय को प्रकरण कह जाता है। दोनों ही आमने सामने आ जाने से, उन की सच्चाई के बारे में संशय या जिज्ञासा खडी हो जाती है और जब तक निर्णय न हो तब तक वे दोनों संशय से लेकर विचाराधीन ही रह जाते हैं - यह चिन्ता है। जो पक्ष-प्रतिपक्ष में से कोई भी एक, जो कि विचाराधीन है, उसी को ही यदि निश्चय के लिये प्रयुक्त किया जाय तो वैसा पक्ष या प्रतिपक्ष, अर्थात् उस में प्रयुक्त किये गये हेतु 'प्रकरणसम' हेत्वाभास कहलाता है, क्योंकि दोनों ही पक्ष में वह चिन्ता समानरूप से अनिवार्य बन जाती है, क्योंकि दोनों ही पक्ष में पक्षवृत्तित्वरूप अन्वयादि तीन लक्षण मौजूद रहते हैं।
* प्रकरणसम यानी सत्प्रतिपक्ष का उदाहरण * प्रकरणसम का यह उदाहरण देखिये - एक वादी कहता है – शब्द अनित्य है क्योंकि उस में कोई नित्य पदार्थ के धर्मों की (अविनाशित्वादि की) उपलब्धि नहीं होती। उदा. जिस में नित्य के धर्म की उपलब्धि नहीं होती वह अनित्य देखा गया है जैसे घडा आदि। और जो नित्य होता है उस में नित्य के धर्म की अनुपलब्धि नहीं होती जैसे कि आत्मा में। ज्ञातव्य है कि यहाँ शब्द में जैसे नित्य धर्म की उपलब्धि नहीं होती वैसे अनित्य धर्म की भी उपलब्धि दुष्कर है। अर्थात् तत्व क्या है – नित्यधर्मवत्ता या अनित्यधर्मवत्ता ? दोनों की अनुपलब्धि यहाँ तत्त्वानुपलब्धि कही गयी है। जब चिन्ताकारक एक वादी उक्त तत्त्वानुपलब्धि के एक अंशभूत नित्यधर्मानुपलब्धिस्वरूप अन्यतरानुपलब्धि का साधनरूप में उपन्यास कर के शब्द में अनित्यत्व
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