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________________ पञ्चमः खण्डः का० ५६ ऽसिद्धतोद्भावनं विधातुं शक्यम् ? यस्य हि अनुपलब्धिनिमित्तसंशयोत्पत्तौ शब्दे नित्यत्वाऽनित्यत्वजिज्ञासा स कथमन्यतरानुपलब्धिर्हेतुत्वप्रयोगेऽसिद्धतां ब्रूयात् ? अत एव सूत्रकारेण ‘यस्मात् प्रकरणचिन्ता’ (न्यायद० १-२-७) इति असिद्धतादोषपरिहारार्थमुपात्तम् । एवम् ' अनित्यः शब्दः पक्ष - सपक्षयोरन्यतरत्वात् घटवत्' इति चिन्तासम्बन्धिना पुरुषेणोक्तेऽपरस्तत्सम्बन्धी' नित्यः शब्दः पक्ष- सपक्षयोरन्यतरत्वात् आकाशवत्' यदाह तदा प्रकरणसम एव । अत्र प्रेरयन्ति पक्ष-सपक्षयोरन्यतरः पक्षो सपक्षो वा ? यदि पक्षः तदा न हेतोः सपक्षवृत्तिता, न हि शब्दस्य धर्म्यन्तरे वृत्तिः सम्भवतीति असाधारणतैवास्य हेतोः स्यात् । अथ सपक्षः अन्यतरशब्दवाच्यस्तदा हेतोरसिद्धता सपक्षयोर्घटाऽऽकाशयोः शब्दाख्ये धर्मिणि अप्रवृत्तेरसिद्धेऽन्तर्भूतस्यास्य विधान गलत है क्योंकि यहाँ दोनों पक्षों के चिन्ताकारक पुरुषों की ओर से प्रकरणसम हेतु का हेतुरूप से जब उपन्यास किया जाता है तब एक पुरुष के सामने दूसरा पुरुष असिद्धि का उद्भावन कैसे कर सकता है ? जिन को नित्य या अनित्य धर्म की अनुपलब्धि के कारण शब्द के बारे में संशय पैदा हो जाय कि 'यह नित्य है या अनित्य' ऐसे लोगों को इस संशय से यह जिज्ञासा होती है कि शब्द नित्य है या अनित्य ? जब तक दोनों में से एक का भी निर्णय नहीं है तब तक अन्यतरानुपलब्धि का हेतुरूप से प्रयोग करने पर, उस को असिद्ध कैसे कहा जा सकेगा ? न्यायदर्शन के सूत्रकार ने इसी लिये, असिद्धि दोष को यहाँ निरवकाश दिखाने के लिये 'यस्मात् प्रकरणचिन्ता' ऐसा कहा है, अर्थात् जिस संशय के कारण पक्ष और प्रतिपक्ष स्वरूप प्रकरण की समीक्षा प्रवृत्त होती है वह प्रकरणसम हेत्वाभास है ऐसा कहा है । तदुपरांत, एक और उदाहरण प्रकरणसम का देख सकते हैं एक वादी कहता है ' शब्द अनित्य है क्योंकि वह पक्ष या सपक्ष में से एक है जैसे कि घट।' अब इस प्रयोग में, घट में अनित्यत्व सिद्ध होने से वह सपक्ष है और शब्द में अनित्यत्व का संदेह होने से वह पक्ष है, किन्तु 'पक्ष - सपक्ष अन्यतरत्व' यह दोनों का समानधर्म है । अगर समानधर्ममात्र को हेतु बना कर अनित्यत्व की शब्द में सिद्धि की जाय तो वैसे दूसरा वादी नित्यत्व की भी सिद्धि कर सकता है - . जैसे देखिये ' शब्द नित्य है क्योंकि वह पक्ष - सपक्ष में से एक है जैसे आकाश ।' यहाँ आकाश में नित्यत्व सिद्ध है इसलिये वह सपक्ष है और शब्द में नित्यत्व संदिग्ध है बाधित नहीं है इस लिये वह पक्ष है । इस प्रकार पक्ष-सपक्ष अन्यतरत्व हेतु सर्वत्र प्रकरणसम हेत्वाभास हो सकता है । * असाधारण/असिद्धता की आशंका यहाँ प्रकरणसम के निषेध में कुछ लोग कहते हैं जो 'पक्ष - सपक्ष दो में से एक' उस में 'दो में से एक' इस से पक्ष अभिप्रेत है या सपक्ष ? यदि पक्ष (शब्द) अभिप्रेत हो तब यह हेतु असाधारण अनैकान्तिक ही होगा न कि उस से भिन्न प्रकरणसम, क्योंकि शब्दात्मक 'दो में से एक' हेतु यहाँ किसी अन्य सपक्षविपक्ष धर्मी में विद्यमान नहीं है । जो सपक्ष-विपक्ष व्यावृत्त हो वही हेतु असाधारण अनैकान्तिक कहा जाता है। (‘पक्ष-सपक्ष अन्यतरत्व' हेतु तादात्म्य से 'पक्ष - सपक्ष अन्यतरात्मक' यहाँ ग्रहण किया जाय तब उपरोक्त दोष बराबर लागू हो जाता है । तादात्म्य से शब्द हेतु शब्द में ही रहता अन्यत्र नहीं ।) यदि अन्यतरत्व हेतु से सपक्ष को लिया जाय तो वादि के प्रयोग में घटात्मक सपक्ष और प्रतिवादि के प्रयोग में आकाशात्मक सपक्ष हेतु बनेगा, किन्तु ऐसा हेतु कहीं भी शब्दात्मक पक्ष में तादात्म्यादि से नहीं रहता, इसलिये यह हेतु ‘असिद्ध' हेत्वाभास बनेगा न कि प्रकरणसम । प्रयोगों में 'पक्ष - सपक्षान्यतर' शब्द से पक्ष या सपक्ष के अलावा और किसी का ग्रहण तो यहाँ सम्भव नहीं है जो कि पक्ष का तादात्म्यादि से धर्म (यानी हेतु) बन सके, Jain Educationa International - - २५३ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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