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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ५६ २४७ ग्रहणाऽसामर्थ्यात् स्फटिकादौ चार्वाग्भाग-परभागयोरध्यक्षत एवैकदा प्रतिपत्तेः। न च स्थैर्यग्राह्यध्यक्ष प्रतिक्षणपरिमाणानुमाने विरुध्यतेऽस्य तदनुग्राहकत्वात् कथंचित् प्रतिक्षणपरिणामस्य तत्प्रतीतस्यैवानुमानतोऽपि निश्चयात् ।।५५ ।। अनेकान्तव्यवच्छेदेनैकान्तावधारितधर्माधिकरणत्वेन धर्मिणं साधयन्नेकान्तवादी न साधर्म्यतः साधयितुं प्रभुः नापि वैधर्म्यतः इति प्रतिपादयन्नाह - साहम्मउ व्व अत्थं साहेज्ज परो विहम्मओ वा वि। अण्णोण्णं पडिकुट्ठा दोण्णवि एए असव्वाया ॥५६॥ “समानः = तुल्यः साध्यसामान्यान्वितः साधनधर्मो यस्य' असौ सधर्मा साधर्म्यदृष्टान्तापेक्षया साध्यधर्मी, तस्य भावः साधर्म्यम् ततो वा अर्थं साध्यधर्माधिकरणतया धर्मिणं साधयेत् परः अन्वयिहेतुप्रदर्शनात् साध्यधर्मिणि विवक्षितं साध्यं यदि वैशेषिकादिः साधयेत् तदा तत्पुत्रत्वादेरपि गमकत्वं स्यात् अन्वयमात्रस्य तत्रापि भावात् । अथ वैधाद् – “विगतस्तथाभूतः साधनधर्मो यस्माद्' असौ के मत का निरसनमात्र होता है न कि स्वतन्त्र साधन । अतः वैसे अनुमान प्रयोगों में हम प्रतिवादी सम्मत हेतु-दृष्टान्त प्रयोग करते हैं तब अप्रसिद्ध-विशेषणता आदि दोषों के आरोप को अवकाश नहीं रहता। तथा, उत्तरकालीन विकार को हेतु कर के क्षण क्षण वस्तु परिवर्तन का और अग्रिम भाग के दर्शन से पाश्चात्य भाग का अनुमान किया जाय तब वहाँ प्रत्यक्षबाधादि दोष को अवकाश नहीं होता, क्योंकि हमारा प्रत्यक्ष इतना सशक्त नहीं होता कि वस्तु के सम्पूर्ण धर्मों का ग्रहण कर सके। हाँ, स्फटिक काच आदि ऐसे पदार्थ भी होते हैं जिस के अग्रिम और पाश्चात्त्य दोनों भागों को एक साथ भी प्रत्यक्ष से देख सकते हैं। अनेकान्त मत में वस्तु के स्थायित्व को ग्रहण करनेवाले प्रत्यक्ष के साथ प्रतिक्षणपरिवर्तनशीलता के अनुमान का कोई विरोध सम्भव नहीं है, क्योंकि स्थायित्वग्राही प्रत्यक्ष ही वस्तु के प्रतिक्षणपरिवर्तन का भी अंशतः ग्रहण करता है अतः वह स्थायित्वग्राहक प्रत्यक्ष तो प्रतिक्षण परिणाम के अनुमान का समर्थक है। प्रतिक्षणगृहीत प्रतिक्षणपरिणाम का ही पुनः निश्चय अनुमान से वहाँ किया जाता है ।।५५ ।। * साधर्म्य-वैधर्म्य द्वारा एकान्तवाद में सिद्धि दुष्कर * एकान्तवादी चाहे कि अनेकान्तवाद को त्याग दिया जाय और एकान्तरूप से निर्धारित धर्म के अधिकरण के रूप में धर्मी को सिद्ध किया जाय तो वह चाहे इस तथ्य को साधर्म्य से सिद्ध करे या वैधर्म्य से, लेकिन सफल नहीं हो सकेगा - इसी तथ्य का निरूपण ५६ वे सूत्र में किया जा रहा है - गाथार्थ :- प्रतिवादी साधर्म्य से अर्थसिद्धि करे या वैधर्म्य से, वे दोनों ही असद्वाद है क्योंकि परस्पर विरुद्ध हैं ।।५६।। ___व्याख्यार्थ :- ‘साधर्म्य' शब्द 'सधर्मा' शब्द से - भाव में 'य' प्रत्यय लगने से बना है। सधर्मा शब्द की व्युत्पत्ति है - समान है साधनधर्म जिस का। समान यानी तुल्य और साधनधर्म से यहाँ साध्य-सामान्य से अन्वित साधनधर्म अभिप्रेत है। ऐसे सधर्मा का भाव ही साधर्म्य है। तात्पर्य यह है कि दृष्टान्त में और पक्ष में, साध्य का आधारभूत धर्मी जब साध्य के साथ व्याप्ति से अन्वित साधनधर्म से समन्वित होता है तब दोनों ही समानधर्मा हो जाते हैं और ऐसे स्थल में दृष्टान्त को साधर्म्य दृष्टान्त कहा जाता है। वैशेषिकादि पंडित जब साधर्म्य दृष्टान्त के आधार पर साध्यधर्म के अधिकरणरूप में पक्ष को सिद्ध करना चाहेंगे, अर्थात् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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