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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् लोकव्यवहारविरोधोऽपि न प्रतिज्ञायाः, अध्यक्षादिप्रमाणावसेये सदसत्तात्मके वस्तुनि कस्यचिद् विरोधस्याऽसम्भवात् । न चाऽप्रसिद्धविशेषणः पक्षः लौकिक-परीक्षकैस्तथाभूतविशेषणस्याऽविप्रतिपत्त्या सर्वत्र प्रतीतेः, अन्यथा विशेषणव्यवहारस्योच्छेदप्रसंगात् अन्यथाभूतस्य तस्य क्वचिदप्यसम्भवात् तथाभूतविशेषणात्मकस्य धर्मिणः सर्वत्र प्रतीते प्रसिद्धविशेष्यतादोषः। नाप्यप्रसिद्धोभयता दूषणम् तथाभूतद्वयव्यतिरेकेणान्यस्याऽसत्त्वतः प्रमाणाऽविषयत्वात् ।
हेतुरपि नाऽप्रसिद्धः तत्र तस्य सत्त्वप्रतीतेः, विपक्षे सत्त्वाऽसम्भवात् नापि विरुद्धः, अनैकान्तिकताऽपि अतः एवाऽयुक्ता। दृष्टान्तदोषा अपि साध्यादिविकलत्वादयो नात्र सम्भविनः, असिद्धत्वादिदोषवत्येव साधने तेषां भावात् । न चानुमानतोऽनेकान्तात्मकं वस्तु तद्वादिभिः प्रतीयते अध्यक्षसिद्धत्वात् । यस्तु प्रतिपन्नेऽपि ततस्तस्मिन् विप्रतिपद्यते तं प्रति तत्प्रसिद्धत्वेनैव न्यायेनानुमानोपन्यासेन विप्रतिपत्तिनिराकरणमात्रमेव विधीयते इति नाऽप्रसिद्धविशेषणत्वादेर्दोषस्याऽवकाशः। प्रतिक्षणपरिणाम-परभागादीनां तूत्तरविकाराऽर्वाग्भागदर्शनान्यथानुपपत्त्याऽनुमाने नाध्यक्षादिबाधा अस्मदाद्यध्यक्षस्य सर्वात्मना वस्तुगया है। यदि कोई यहाँ विशेषणों को अप्रसिद्ध करार दे तो यह उचित नहीं है क्योंकि न केवल लोगों को, अपि तु परीक्षकों को भी आत्मा के अस्तित्व, नित्यत्वादि विशेषणों का निर्विवादरूप से सर्वत्र भान होता है। यदि इन विशेषणों का इन्कार किया जाय तो फिर सर्वत्र विशेषणव्यवहार का उच्छेद हो जायेगा। आत्मा को सत् आदि रूप से विशेषित कर के उस का ज्ञान कराता है इसीलिये अस्तित्वादि आत्मा के विशेषण बनने के काबिल है, किन्तु यदि इस का इन्कार किया जाय तो नीलादिरूप भी विशेषण बनने के काबिल नहीं रहेगा, फलतः विशेषणव्यवहार का विलोप होना स्वाभाविक है। अस्तित्वादि से सर्वथा उलटा ही ऐसे विशेष्यभूत आत्मा पदार्थ का कहीं भी सम्भव नहीं है और ‘अस्तित्व' आदि विशेषणात्मक धर्मी आत्मा की सर्वत्र प्रतीति होती है इस लिये उक्त प्रतिज्ञा में धर्मी की या विशेष्य की असिद्धि का दोष भी निरवकाश है। यहाँ विशेष्य-विशेषण – उभय की अप्रसिद्धता का दोष सम्भव ही नहीं है, क्योंकि विशेष्यभूत आत्मा एवं अस्तित्वादि उस के विशेषणों के अलावा और कोई यहाँ प्रतिज्ञावाक्य में विशेष्य या विशेषण के रूप में प्रमाणगोचर न होने से असत् है।
* आत्म-अस्तित्वादि साधने में हेतुदोष-दृष्टान्तदोष निरवकाश *। आत्मा के अस्तित्वादि धर्मों की सिद्धि के लिये कोई हेतु ही नहीं है ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि ज्ञानादि हेतु के रूप में आत्मा में विद्यमान हैं यह अनुभवसिद्ध है। ज्ञानादि हेतु विपक्षभूत जड पाषाणादि में नहीं रहता अतः हेतु में विरुद्ध दोष का उद्भावन अशक्य है। विपक्ष में वृत्ति न हो से ही यह ज्ञानादि हेतु साध्यद्रोही भी नहीं हो सकते। यहाँ साध्यवैकल्यादि दृष्टान्तगत दोषों को भी अवकाश नहीं है क्योंकि जहाँ हेतु में असिद्धि आदि दोष रहता हो वहाँ ही दृष्टान्त में साध्यवैकल्यादि दोष हो सकता है।
यह भी समझने जैसा है कि हम तो वस्तु को अनेकान्तात्मक मानते हैं अतः हमारे मत में साध्य-हेतुदृष्टान्त सब अनेकान्तात्मक होते हैं जब कि प्रतिवादी तो वैसा नहीं मानते है अतः उस की ओर से विशेषणासिद्धि आदि किसी भी दोष का आरोपण व्यर्थ-प्रयास है। जो लोग अनेकान्तमय वस्तु का प्रत्यक्ष करते हुए भी उस का स्वीकार नहीं करते हैं, विवाद करते हैं, उन के सामने उस के मतानुरूप ही न्याय का प्रयोग कर के जब हमारी ओर से अनुमान का उपन्यास किया जाता है तब उस का प्रयोजन सिर्फ विवाद का यानी प्रतिवादी
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