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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ५५ २४५ रिक्ताः पाषण्डिनः । एते चाभ्युपगमा एकान्ताभ्युपगमत्वाद् मिथ्यास्थानानि । एष्वपि पूर्ववद् विकल्पद्वयेऽपि तद्दोषानतिक्रान्तेः एकान्तेन तदस्तित्वादेरध्यक्षाऽनुमानाभ्यामप्रतीतेः तथाभ्युपगमे च स्वास्तित्वेनेवान्यभावास्तित्वेनापि तस्य भावात् सर्वभावसंकीर्णताप्रसक्तेः स्वस्वरूपाऽव्यवस्थितेः खपुष्पवदसत्त्वमेव स्यात् इत्यादिदूषणमसकृत् प्रतिपादितम् । हेतु-दृष्टान्तदोषाश्च पूर्ववदत्रापि वाच्याः। ___ चतुर्थपादं तु गाथायाः केचिदन्यथा पठन्ति – 'छस्सम्मत्तस्स ठाणाई' ति । अत्र तु पाठे इतरधर्माऽजहद्वृत्ता प्रवर्त्तमाना एते षट् पक्षाः सम्यक्त्वस्याधारतां प्रतिपद्यन्त इति व्याख्येयम् । न च 'स्यादस्ति आत्मा' 'स्यान्नित्यः' इत्यतादिप्रतिज्ञावाक्यम् अध्यक्षादिना प्रमाणेन बाध्यते, स्व-परभावाभावोभयात्मकभावावभासकाध्यक्षादिप्रमाणव्यतिरेकेणान्यथाभूतस्याध्यक्षतादेरप्रतीते; तेनानुमानाभ्युपगमस्ववचनभी है। ये सब मत एकान्तवासनागर्भित होने से मिथ्यात्व के स्थान है। 'अस्ति' आदि एकान्त स्थानों में भी 'नास्ति' आदि स्थानों की तरह बहुत दूषण हैं और पहले कई बार उस का निरूपण हो चुका है। फिर भी संक्षेप में देख लीजिये – अस्तित्वादि विशेषणों का प्रतिपादन प्रतिपक्ष के निषेधपूर्वक करेंगे या स्वीकारपूर्वक ? फिर नास्तित्व की तरह यहाँ भी प्रथम पक्ष में प्रत्यक्ष और अनुमान का विरोध प्रसक्त होगा। कारण, किसी भी चीज का अस्तित्व एकान्तरूप से यानी सर्वरूप से किसी को भी प्रतीत नहीं होता। उदा. जो श्वेतरूप से सत् प्रतीत होता है वह श्वेतभिन्नरूपों से सत् नहीं भासता। यदि कोई भी वस्तु सर्वप्रकार से सत् होगी तो अग्नि जलरूप से और जल अग्निरूप से - अथवा प्रकाश तमस्रूप से और तमस् प्रकाशरूप से 'सत्' मानना पडेगा, इस स्थिति में पदार्थ का कोई एक प्रकाशादिमय स्वरूप सुनिश्चित नहीं रहेगा, सभी भाव संकीर्णस्वरूपवाले हो जायेंगे। संकीर्ण स्वरूप हो जाने पर उस का निश्चित एक स्वरूप न रहने से गगनकुसुम की तरह वह 'असत्' ही निश्चित होगा। - इस प्रकार के दूषणों का पहले कई बार निरूपण हो चुका है। उपरांत, नास्तित्वादि के बारे में जैसे हेतु और दृष्टान्त को सदोष करार दिया था वैसे यहाँ अस्तित्वादि के बारे में भी समझ लेना चाहिये। * स्याद् अस्ति - आदि सम्यक्त्व के छः स्थान * ५५ वीं गाथा का चौथा पाद 'छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई' ऐसा जो है उस के बदले कुछ विद्वान् ‘छस्सम्मत्तस्स ठाणाई' ऐसा पाठ प्रस्तुत करते हैं। तब इस पाठ के अनुसार पूरे सूत्र की व्याख्या इस प्रकार होगी - ‘अपने प्रतिपक्षी धर्म का त्याग किये विना कहे जाने वाले 'अस्ति' आदि छः पक्ष सम्यक्त्व के आधारस्थान बन जाते है।' जब प्रतिपक्ष का सर्वथा त्याग नहीं किया जाय तब प्रतिज्ञा वाक्य 'स्याद् अस्ति' (यानी कथंचित् – किसी अपेक्षा से है) 'स्याद् नित्यः' इस ढंग से 'स्यात्' पद से अलंकृत किया जाता है। 'स्यात्' पद गर्भित प्रतिज्ञावाक्य किसी भी प्रत्यक्षादिप्रमाण से बाधित नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्षादिप्रमाण से यही अवभास होता है कि प्रत्येक भाव उभयात्मक है - अर्थात् स्वरूप से सत् है और पररूप से असत् है; इस से विपरीतस्वरूपवाले पदार्थ की किसी भी प्रत्यक्षादि प्रमाण से प्रतीति होती नहीं है। जब प्रत्यक्षादि प्रमाण से उभयात्मक भाव अवगत होता है तब पूर्वोक्त 'अस्ति आत्मा' आदि प्रतिज्ञावाक्य में न तो अनुमानविरोध है, न स्वमतविरोध है, न स्ववचनव्याघात है, और न लोकव्यवहार के विरोध को अवकाश मिल सकता है। कारण एक ही है कि 'सत्-असत् उभयात्मक वस्तु प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचर हो रही है अतः उस में किसी भी प्रकार के विरोध को अवकाश नहीं बचता। यहाँ प्रतिज्ञा वाक्य में आत्मा को विशेष्य कर के अस्तित्वादि को विशेषणों के रूप में प्रस्तुत किया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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