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दसरा
२४४
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् नापि द्वितीयः स्वाभ्युपगमविरोधप्रसङ्गात् साधनवैफल्यापत्तेश्च, तथाभूतस्यानेकान्तरूपतयाऽस्माभिरप्यभ्युपगमात् । तस्मात् व्यवस्थितमेतदेकान्तरूपतया षडप्येतानि मिथ्यात्वस्य स्थानानि ।।५४ ॥
न केवलं 'नास्ति' इत्यादिषण्मिथ्यात्वस्थानानि, तद्विपर्ययेणापि एकान्तवादे तथैव तानीति दर्शयन्नाह -
अत्थि अविणासधम्मी करेइ वेएइ अत्थि णिव्वाणं ।
अत्थि य मोक्खोवाओ छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई ।।५५ ।। 'अस्ति आत्मा' इति पक्षः पूरणादेर्वादिनः। 'स चाऽविनाशधर्मी' इत्येषा प्रतिज्ञा कपिलमतानुसारिणः। 'कर्तृ-भोक्तृस्वभावोऽसौ' इति मतं जैमिनेः। 'तथाभूत एवासौ जडस्वरूपः' इत्यक्षपादकण्मुग्मतानुसारिणः। 'अस्ति निर्वाणम्' अस्ति च मोक्षोपायः' इत्यामनन्ति नास्तिक-याज्ञिकव्यतिनहीं है इस लिये हेतु असिद्ध है। ऊलटा, यहाँ जो हेतु होगा वह विरुद्ध ही होगा क्योंकि वह हेतु आत्मा में तो कभी नहीं रहेगा, अपि तु रहेगा तो विपक्ष में ही रहेगा। अगर आत्मा में नास्तित्वादि के साधन के लिये किसी दृष्टान्त का उपन्यास किया जाय तो वह भी साध्यधर्म और साधन उभय से शून्य ही होगा, क्योंकि तथाविध नास्तित्वादि साध्य और उस के लिये प्रयुक्त सम्भवित साधन, दोनों का अधिकरण हो ऐसा एक धर्मी कहीं भी प्रसिद्ध नहीं होगा। अतः प्रतिपक्षनिरसनवाला प्रथमपक्ष सिद्ध नहीं हो सकता।
४२-२४) यदि नास्तित्वादि विशेषणों का प्रतिपादन. प्रतिपक्ष के स्वीकार के साथ ही करना अभीष्ट हो तब दो बात हैं, आप एकान्तवादी होने पर आप के नास्तित्वादि मान्य पक्ष के साथ अस्तित्वादि स्वीकार को विरोध प्रसक्त होगा। दूसरी बात, हमारे सामने फिर नास्तित्वादि का साधन निष्फल यानी निरर्थक आयास मात्र बच जायेगा, क्योंकि हम अनेकान्तवादी हैं और हमें अस्तित्व-नास्तित्व उभय का अनेकान्त के रूप में पहले से ही स्वीकार है।
निष्कर्ष :- ‘आत्मा नहीं है' इत्यादि छः स्थान एकान्तगर्भित होने पर मिथ्यात्व के ही आश्रयस्थान बने रहेंगे ।।५४ ।।
* अस्ति आत्मा-आदि मिथ्यात्व के छः स्थान * 'नास्ति' आदि छः ही मिथ्यात्व के स्थान है ऐसा मत समझना ! उस से विपरीत ‘अस्ति' आदि छः भी मिथ्यात्वस्थान ही हो जायेंगे यदि एकान्तवाद का आसरा लिया जाय। यही तथ्य ५५ वे सूत्र से उजागर किया जा रहा है -
गाथार्थ :- “है - अविनाशधर्मी है - कर्ता है - भोगता है - निर्वाण है - मोक्ष का उपाय है" ये छः मिथ्यात्व के स्थान हैं ।।५५ ।।
व्याख्यार्थ :- पूरण तापसादि एकान्तवादियों का मत है कि 'आत्मा सत् है'। कपिलमतानुयायी सांख्यवादियों की यह प्रतिज्ञा है कि आत्मा अविनाशशील है। मीमांसासूत्र के कर्ता जैमिनि का मत है कि आत्मा कर्ता भी है भोक्ता भी है, अर्थात् कर्तृत्व भोक्तृत्व आत्मा का स्वभाव है। अक्षपाद और कणाद के अनुयायी वैशेषिक-नैयायिक पंडितों का मत ऐसा है कि कर्ता-भोक्ता होने पर भी आत्मा जडस्वभाव है (क्योंकि ज्ञान उस का स्वभाव नहीं किन्तु आगन्तुक-विनाशी-भिन्न गुण है।) नास्तिक और मीमांसको को छोड बाकी सब पाखण्डियों का (यानी जैनेतर आस्तिक दार्शनिकों का) यह मत है कि मोक्ष है और उस का उपाय
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