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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ५४ २४३ कर्तृत्वोपलब्धेश्व, स्वव्यापारनिर्वर्तितभक्तसूपादिभोक्तृत्वसंवेदनाच्च, पुद्गललक्षणविलक्षणतया रागादिविविक्ततया च शमसुखरसावस्थायां कथंचित् तस्योपलब्धेश्व, स्वोत्कर्षतरतमादिभावतो रागाद्यपचयतरतमभावविधायिसम्यग्ज्ञानदर्शनादेरुपलम्भाच्च । अनुमानतोऽपि विरोधः, तथाभूतज्ञानकार्यान्यथानुपपत्तितः चैतन्यलक्षणस्यात्मनः सिद्धिः घटादिवद् रूपादिगुणतः ज्ञानस्वरूपगुणोपलम्भात् कथंचित्तदभिन्नस्यात्मलक्षणस्य गुणिनः सिद्धिरिति कथं नानुमानविरोधः ?! इतरधर्मनिरपेक्षधर्मलक्षणस्य विशेषणस्य तदाधारभूतस्य च विशेष्यस्याऽप्रसिद्धेः अप्रसिद्धविशेषण-विशेष्योभयदोषैर्दुष्टश्च पक्षः। 'आत्मा' इति वचनेन तत्सत्ताभिधानम् 'नास्ति' इत्यनेन च तत्प्रतिषेधाभिधानमिति पदयोः प्रतिज्ञावाक्ये व्याघातः लोकविरोधश्च तथाभूतविशेषणविशिष्टतया धर्मिणो लोकेन व्यवह्रियमाणत्वात् स्ववचनविरोधश्च तत्प्रतिपादकवचनस्येतरधर्मसापेक्षतया प्रवृत्तेः। हेतुरपि इतरनिरपेक्षकधर्मरूपोऽसिद्धः तथाभूतस्य तस्य क्वचिदनुपलब्धेः सर्वत्र तद्विपरीत एव भावाद् विरुद्धश्च । दृष्टान्तश्च साध्यसाधनधर्मविकलः तथाभूतसाध्यसाधनधर्माधिकरणतया कस्यचिद्धर्मिणोऽप्रसिद्धेः। तन प्रथम पक्षः। होता है तब मंद या मंदतर मात्रा में रागादि का विलय अनुभूत होता है; एवं जब सम्यग् दर्शनादि का उत्कर्ष उग्र-उग्रतर दशा में विद्यमान होता है तब उग्र-उग्रतर यावत् पराकाष्ठा तक रागादि दोषों का विलय भी अनुभूत होता है अतः ‘मोक्ष का उपाय नहीं है' यह विधान भी प्रत्यक्षविरुद्ध लक्षित होता है, क्योंकि उक्त अन्वयव्यतिरेक से सम्यग्दर्शनादि में ही मोक्ष की कारणता सिद्ध होती है। * मिथ्या छः स्थानकों में अनुमानविरोधप्रदर्शन * आत्मा का नास्तित्वादि अनुमानविरुद्ध है। जैसे रूपादि गुण घटादि आधार के विना सम्भव न होने से घट के रूपादिगुणों से उन के आश्रयभूत घटादि की सिद्धि होती है वैसे ही ज्ञानादि गुण स्वरूप कार्य भी उस के आधारभूत आत्मा के विना सम्भव न होने से चैतन्यस्वरूप आत्मा की सिद्धि अनुमानप्रमाण से होती है। ज्ञान और आत्मा में कथंचित् अभेद ही होता है, अतः ज्ञानात्मक गुण का उपलम्भ होने पर आत्मस्वरूप गुणी की सिद्धि निर्विवाद होती है - इस तादात्म्यमूलक अनुमान के साथ नास्तित्वादिप्रतिपादन का विरोध क्यों नहीं होगा ? तदुपरांत, आत्मा पक्ष 'अप्रसिद्ध विशेषण और 'अप्रसिद्ध विशेष्य' दोष से दुष्ट है। कैसे यह देखिये- आत्मा का विशेष्य रूप में और नास्तित्वादि का विशेषण के रूप में निर्देश किया गया है किन्तु विशेषण इतरधर्मनिरपेक्ष धर्मस्वरूप होता है, अस्तित्वसापेक्ष होने से नास्तित्व वैसा धर्म नहीं होने से विशेषण असिद्ध है। तथा विशेषण के आधार को विशेष्य कहा जाता है, किन्तु यहाँ विशेषण असिद्ध होने से उस का आधार भी असिद्ध है अतः विशेष्य-असिद्धि दोष भी प्रसक्त है। जब 'आत्मा' शब्दप्रयोग किया जाता है तब उस से तो आत्मा की सत्ता का निर्देश किया जाता है, फिर 'नास्ति' शब्द से उस की सत्ता का निषेधवचन करने पर प्रतिज्ञावाक्य में उन दोनों पदों का परस्पर व्याघात हो जाता है। तथा लोक में तो सत्तादिविशेषणविशिष्ट धर्मी का ही व्यवहार किया जाता है, जो सत्तादिविशेषेण शून्य हो उस का लोक में व्यवहार नहीं होता। अतः ‘आत्मा नास्ति' ऐसा कहने पर लोकव्यवहार का विरोध प्रसक्त होगा। तथा, नास्तित्वादि प्रतिपादक वचनप्रयोग अस्तित्वादि इतरधर्म की अपेक्षा से ही किया जा सकता है, फलतः आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो जाने से अपने 'नास्ति' वचन का विरोध भी प्रसक्त होगा। आत्मा में नास्तित्वादि को सिद्ध करने के लिये इतर निरपेक्ष एक धर्मस्वरूप हेतु होना चाहिये किन्तु यहाँ वैसा कोई हेतु उपलब्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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