SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् नासौ तद् भुंक्ते क्षणिकत्वात् चित्तसंततेः इति बौद्धाः ; क्षणिकत्वात् चित्तसंततेः कृतं न वेदयते इति बौद्ध एवाह। कर्त्ता भोक्ता चात्मा किन्तु न मुच्यतेऽसौ चेतनत्वादभव्यवत्, रागादीनामात्मस्वरूपाऽव्यतिरेकात् तदक्षये तेषामप्यक्षयात् इति याज्ञिकः । निर्हेतुक एवाऽसौ मुच्यते तत्स्वभावताव्यतिरेकेणऽपरस्य तत्रोपायस्याऽभावात् इति मण्डली प्राह । एतानि षड् मिथ्यात्वस्य स्थानानि षण्णामप्येषां पक्षाणां मिथ्यात्वाधारतया व्यवस्थितेः । तथाहि एतानि नास्तित्वादिविशेषणानि साध्यधर्मिविशेषणतयोपादीयमानानि किं प्रतिपक्षव्युदासेनोपादीयन्ते आहोस्वित् कथंचित् तत्संग्रहेणेति कल्पनाद्वयम् । प्रथमपक्षेऽध्यक्षविरोधः ; स्वसंवेदनाध्यक्षतश्चैतन्यस्यात्मरूपस्य प्रतीतेः, कथंचित् तस्य परिणामनित्यताप्रतीतेश्च, शरीरादिव्यापारतः है किन्तु भोक्ता नहीं है, जैसे प्रकृति भोग करती है वैसे आत्मा में भोक्तृत्व संगत नहीं होता । अथवा बौद्धवादी कहते हैं - चित्तसंतति क्षणिक है इसलिये जिस ने कर्म किया वह उस का फल भोग करने के काल में जीवित नहीं रहता इस लिये आत्मा कर्त्ता है किन्तु भोक्ता नहीं है । चित्तसन्तान क्षणजीवी होने से कृत का वेदन नहीं करता ऐसा बौद्ध का ही कथन है । (५) याज्ञिक मीमांसको का यह मत है कि आत्मा कर्त्ता - भोक्ता जरूर है किन्तु कभी भी उस का मोक्ष नहीं होता, क्योंकि वह चेतन है, जैसे जैन मत में अभव्य जीवों का मोक्ष कभी नहीं होता। मीमांसक प्रदर्शित कारण यह है कि राग-द्वेषादि आत्मा से अभिन्न होते हैं अतः आत्मा को अक्षय मानने पर तदभिन्न रागादि भी अविनाशी प्रसक्त होगा । ( ६ ) 'मंडली' नाम से विख्यात पंडित का कहना है कि मोक्ष जरूर होगा लेकिन विना हेतु से, यानी मोक्ष का कोई उपाय नहीं है। आत्मा का मुक्ति स्वभाव ही उस को कभी मुक्त करेगा, और कोई मुक्ति का उपाय है ही नहीं । ये छः मत मिथ्यात्व के निवासस्थान हैं क्योंकि इन छ पक्षों को अपना आधार बना कर मिथ्यात्व स्थिर रहता है । - Jain Educationa International - * छः स्थानों में मिथ्यात्व का उपपादन * ये सब कैसे मिथ्यात्व के स्थान है वह देखिये – प्रतिवादियों ने यहाँ आत्मा को साध्यधर्मी यानी पक्ष के रूप में प्रस्तुत कर के उस में जो नास्तित्वादि विशेषणों का प्रतिपादन किया है उस के ऊपर ये दो प्रश्न हैं कि नास्तित्वादि के प्रतिपक्ष अस्तित्वादि के निषेध के साथ नास्तित्वादि विशेषणों का प्रतिपादन अभीष्ट है या कथंचित् अस्तित्वादि को भी मान्य रख कर नास्तित्वादि का साधन करना है ? प्रथम विकल्प में एक एक विशेषण में प्रत्यक्षतः विरोध दोष प्रसक्त होगा । ( १ ) चैतन्यस्वरूप आत्मा सभी को 'अहं' के रूप में या चैतन्यस्फुरण के रूप में अपने प्रत्यक्ष संवेदन से प्रतीत होता है अतः नास्तित्व के साथ प्रत्यक्ष विरोध है । (२) तथा, बाल-वृद्धादि परिणामों में भी अविच्छिन्न आत्मा का अनुभव होने से आत्मा में कथंचित् परिणाम - नित्यता भी संविदित होती है अतः 'नित्य नहीं हैं' यह विधान प्रत्यक्ष विरुद्ध है । (३) तथा, शरीर तो जड है फिर भी आत्मा के चैतन्य से ही वह सचेष्ट बनता है और विविध कार्य करता है यह भी प्रत्यक्षानुभव है इस लिये 'कर्त्ता नहीं है' यह विधान भी प्रत्यक्षविरुद्ध है । (४) तथा, जीव अपने प्रयत्न से पकाये गये भोजन - दाल-चावल आदि का भोग करता है यह भी अनुभवसिद्ध है इसलिये ‘भोक्ता नहीं है' यह विधान भी प्रत्यक्षविरुद्ध है । (५) तथा, जब योगसिद्ध पुरुष उपशमभाव के सुधारस से सभर सुख से छलाछल अवस्था में निमग्न हो जाता है तब पुद्गल के स्वरूप से और रागादि से अत्यन्त विमुक्त अपनी आत्मा को महेसुस करता है इस लिये 'मोक्ष नहीं है' यह विधान भी प्रत्यक्षविरुद्ध है। (६) तथा, जब सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् आचरण का उत्कर्ष मंद या मंदतर अवस्था में विद्यमान For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy