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पञ्चमः खण्डः का० ५४
सम्भवन्तीति तद्वादो मिथ्यावाद इति स्थितम् । त एवान्योन्यसव्यपेक्षा नित्याद्येकान्तव्यपोहेनैकानेकस्वभावाः कार्यनिर्वर्त्तनपटवः प्रमाणविषयतया परमार्थसन्त इति तत्प्रतिपादकस्य शास्त्रस्यापि सम्यक्त्वमिति तद्वादः सम्यग्वादतया व्यवस्थितः || ५३ ॥
यथैते कालाद्येकान्ता मिथ्यात्वमनुभवन्ति, स्याद्वादोपग्रहात् तु त एव सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते तथात्मापि एकान्तनित्याऽनित्यत्वादिधर्माध्यासितो मिथ्यात्वमनेकान्तरूपतया त्वभ्युपगम्यमानः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यत
इत्याह
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णत्थि ण णिच्चो ण कुणइ कयं ण वेएइ णत्थि णिव्वाणं । णत्थि य मोक्खोवाओ छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई । । ५४ ।।
'नास्ति आत्मा एकान्ततः' इति बृहस्पतिमतानुसारी । 'अस्ति आत्मा किन्तु प्रतिक्षणविशरारुतया चित्तसंततेः न नित्य' इति बौद्धा: । 'अस्ति आत्मा नित्यो भोक्ता, न तु करोति' इति साङ्ख्याः । ‘कर्त्ताऽसौ न भोक्ता प्रकृतिवत् कर्त्तुर्भोक्तृत्वानुपपत्तेः ' । यद्वा येन कृतं कर्म
त एव प्राहुः
एवं ईश्वरवाद का निरसन हो जाता है वैसे 'प्रजापति द्वारा इस सृष्टि का निर्माण हुआ' इत्यादि प्रलापों का भी निरसन समझ लेना चाहिये, क्योंकि न्याय सर्वत्र अपक्षपाती होने से, जो दूषण पुरुषवाद में हैं वे प्रजापतिवाद में भी समानरूप से संलग्न होंगे।
कालादि की एकान्त कारणता प्रमाण से संगत नहीं होती यह अब सिद्ध हो जाता है इस लिये एकान्त कारणतावाद मिथ्या है यह निष्कर्ष फलित होता है ।
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५३ वीं गाथा के उत्तरार्ध को स्पष्ट करते हुए व्याख्याकार कहते हैं कि ये सब एकान्त कारणतावादी अगर अपना अपना एकान्त कदाग्रह छोड कर अन्य नियति आदि सापेक्ष कालादि की कारणता का स्वीकार कर ले अर्थात् अनेकान्तवाद का स्वीकार करे और एकान्त नित्य - एकान्तानित्यवाद का परिहार कर के प्रत्येक वस्तु एकानेकस्वभाव हो कर ही अपने कार्य के सम्पादन में सशक्त होती है ऐसा माना जाय तो वे प्रमाणसंगत होने से पारमार्थिक सत्य माने जा सकते हैं और उस के निरूपण करनेवाले शास्त्र को भी सम्यक् शास्त्र कह सकते हैं। सम्यक् शास्त्रोक्त वाद ही सम्यग्वाद होता है यह निष्कर्ष है ।। ५३ ।।
ऊपर जो कह आये, एकान्तरूप से कालादि की कारणता का वाद मिथ्यात्वपतित हो जाता है और स्याद्वाद से अलंकृत वे ही कालादिकारणता वाद सम्यक्त्वारूढ हो जाता हैं – ऐसे ही आत्मा को भी यदि एकान्तरूप से नित्य अथवा अनित्यादि स्वरूपवाला मान लिया जाय तो मिथ्यात्व प्रसक्त होगा, किन्तु अनेकान्तमाला उस को पहना दिया जाय तो सम्यक्त्व से अलंकृत हो जाता है यह तथ्य ५४ वे सूत्र
से कहा जा रहा है
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गाथार्थ :- (आत्मा) नहीं है, नित्य नहीं है, कर्त्ता नहीं, भोगता नहीं, निर्वाण नहीं है और आत्मा के मोक्ष का कोई उपाय भी नहीं है ये छः स्थान हैं मिथ्यात्व के ।। ५४ ।।
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* मिथ्यात्वप्रसक्ति के छः स्थान *
व्याख्यार्थ :- (१) बृहस्पति जो कि नास्तिकों का गुरु माना जाता है उस के मत में आत्मा जैसी कोई चीज ही नहीं है, अर्थात् आत्मा एकान्ततः नास्ति है । (२) बौद्ध विद्वान तो कहते हैं कि आत्मा जरूर हैं लेकिन वह क्षण क्षण में क्षीण होने वाले चित्तों के सन्तानरूप ही है । अर्थात् वह नित्य नहीं है । (३) सांख्य कहते हैं आत्मा नित्य और भोक्ता है किन्तु कर्त्ता नहीं है । (४) फिर ये ही लोग कहते हैं कि आत्मा कर्त्ता
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