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________________ २४० __ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् - अयुक्तमेतत्, एवं हि तद्व्यापारमात्रभाविनामशेषभावानां युगपद् भावो भवेत् अविकलकारणत्वात्, सहकार्यपेक्षापि न नित्यस्य संगता इत्युक्तम् । पुरुषवादिनां तु केवलस्यैव पुरुषस्य जगत्कारणत्वेनाभ्युपगमात्तदपेक्षा दूरापास्तैव । पृथिव्यादिमहाभूतानां तु स्वहेतुबलायातापरस्वभावसद्भावान्न तदुत्पाद्यकार्यस्य युगपदुत्पत्त्यादिदोषः संभवी। ___ न च यथोर्णनाभः स्वभावतः प्रवृत्तोऽपि न स्वकार्याणि युगपद् निर्वर्तयति तथा पुरुषोऽपीति वाच्यम्, यत ऊर्णनाभस्यापि प्राणिभक्षणलाम्पट्यात् स्वकार्ये प्रवृत्तिर्न स्वभावतः, अन्यथा तत्राप्यस्य दोषस्य समानत्वात् । न ह्यसौ नित्यैकस्वभावः अपि तु स्वहेतुबलभाव्यपरापरकादाचित्कशक्तिमानिति तद्भाविनः कार्यस्य क्रमप्रवृत्तिरुपपन्नैव । न च यथा कथंचिदबुद्धिपूर्वकमेव पुरुषो जगन्निवर्त्तने प्रवर्तते, प्राकृतपुरुषादप्येवमस्य हीनतया प्रेक्षापूर्वकारिणामनवधेयवचनताप्रसक्तेः। एवं प्रजापतिप्रभृतीनामपि जगत्कारणत्वेनाभीष्टानां निरासो दृष्टव्यः न्यायस्य समानत्वात् । तन्न कालायेकान्ताः प्रमाणतः * स्वभावतः ईश्वरप्रवृत्ति असंगत * यदि ऐसा कहा जाय कि 'ईश्वर की प्रवृत्ति क्रीडादिप्रयोजनप्रेरित नहीं होती किन्तु स्वभावप्रेरित होती है जैसे कि पृथ्वीआदि पंच महाभूतों की अपने अपने कार्यों में स्वभावतः सहज कारणता होती है।' - यह विधान युक्तिपूर्ण नहीं है, क्योंकि यदि ईश्वर एक-मात्र स्वभाव से ही सकल वस्तुसमूह की रचना करता है तो वह स्वभाव सर्वदा अक्षुण्ण होने से उन सकल वस्तुसमूह की उत्पत्ति भी एक साथ हो जायेगी क्योंकि उस की एकमात्र सामग्री-स्वभाव सदा मौजूद है। 'सहकारी के विलम्ब से कार्य विलम्ब' की बात में कोई तथ्य नहीं है क्योंकि नित्य पदार्थ को स्वकार्यसम्पादन के लिये किसी सहकारी की अपेक्षा नहीं रह जाती। पुरुष-कारणवादि तो केवल पुरुष को ही सर्व कार्यों का हेतु मानता है, इस लिये उस के मत में तो सहकारी अपेक्षा की बात दूर निक्षिप्त है। तथा पृथिवी आदि महाभूतों की केवल स्वभावतः प्रवृत्ति की बात में भी तथ्य नहीं है, उन में भी अपने अपने भिन्न भिन्न हेतुओं से अन्य अन्य स्वभाव होता है, इस लिये उन से उत्पन्न होनेवाले कार्यों की एक साथ उत्पत्ति आदि दोषों को अवकाश नहीं है। * स्वभाव से या अबुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति असंगत * पुरुषवादी :- मकडी की जाल बनाने में उस जन्तु की स्वभाव से ही प्रवृत्ति होती है फिर भी क्रमशः होती है, तो ऐसे ही पुरुष की भी क्रमशः स्वभाव से चेष्टा हो सकेगी। सिद्धान्तवादी :- नहीं, मकडी की प्रवृत्ति केवल स्वभाव से नहीं किन्तु मक्खी आदि जन्तुओं के भक्षण की लालसा से ही उस की जालनिर्माण प्रवृत्ति होती है। यदि मकडी की चेष्टा केवल स्वभाव से होती तब तो वहाँ भी एक साथ अपने कार्यों की निष्पत्ति का दूषण तदवस्थ ही रहता। उपरांत, मकडी कोई शाश्वत जन्तु नहीं है। वह तो अपने भिन्न भिन्न हेतु से जन्म लेता है और उस की शक्ति भी अल्पकालीन एवं भिन्न भिन्न प्रकार की होती है क्योंकि वह भी अपने अपने तथाविध हेतुओं से ही उत्पन्न होती है। अत एव शक्तियों के क्रमिक होने से मकडी की प्रवृत्ति भी क्रमिक होना सुसंगत है। पुरुषवादी :- यह पुरुष जैसे तैसे ही विना बुद्धि के ही सृष्टिरचना में प्रवृत्त होता है। सिद्धान्तवादी :- नहीं, ऐसा मानने पर तो सृष्टिनिर्माता पुरुष ग्रामीणपुरुष से भी हीनकक्ष हो जाने से बुद्धिपूर्वक काम करने वालों के लिये उस का वचन उपादेय नहीं रहेगा। जैसे सृष्टिनिर्माण के विषय में पुरुषवाद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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