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पञ्चमः खण्डः - का० ५३
२३९ परहितार्थमुपदेशादिकं करोति तथेश्वरोऽप्यात्मीयामैश्वर्यविभूतिं विख्याप्य प्राणिनोऽनुग्रहीष्यन् प्रवर्त्तत इति । अथवा शक्तिस्वाभाव्यात्, यथा कालस्य वसन्तादीनां पर्यायेणाभिव्यक्तौ स्थावर-जङ्गमविकारोत्पत्तिः स्वभावतः तथैवेश्वरस्याप्याविर्भावानुग्रहसंहारशक्तिनां पर्यायेणाभिव्यक्तौ प्राणिनामुत्पत्ति-स्थितिप्रलयहेतुत्वम्' – इति यदुक्तं प्रशस्तमतिना तदपि प्रतिक्षिप्तं दृष्टव्यम् । तथाहि – यद्यसावनुग्रहप्रवृत्तस्तदा सर्वमेकान्तसुखिनं प्राणिगणं विदध्यादित्युक्तम् । शक्तिस्वाभाव्यात् करणे उत्पत्ति-स्थिति-संहारान् जगतो युगपत् कुर्यात् इत्यादिकमपि उक्तमेव दूषणम् । तथा चाह -
सर्गस्थित्युपसंहारन् युगपद् व्यक्तशक्तितः । युगपच्च जगत् कुर्यात् नो चेत् सोऽव्यक्तशक्तिकः।। न व्यक्तशक्तिरीशोऽयं क्रमेणाप्युपपद्यते। व्यक्तशक्तिरतोऽन्यश्चेत् भावो ह्येकः कथं भवेत् ।। ( )
एवं कालस्यापि पर्यायेण वसन्ताद्यभिव्यक्तिप्रवृत्तावयमेव दोषः। भावास्तु शीतोष्णादिपरिणतिभाजः प्रतिक्षणविशरारवः कथंचित् काल इत्यभिधानाभिधेयाः प्राग् व्यवस्थापिताः। अथ न क्रीडाद्यर्था भगवतः प्रवृत्तिः किन्तु पृथिव्यादिमहाभूतानां यथा स्वकार्येषु स्वभावत एव प्रवृत्तिः तथेश्वरस्यापीति वैरागी मुनि जब किसी को उपदेश करता है तो उसे न तो कुछ अपना आत्महित होने वाला है न तो अपने किसी अहित की निवृत्ति ; तथापि एकमात्र परोपकार के लिये वह उपदेश करता है। ठीक इसी तरह, ईश्वर भी अपने ऐश्वर्य की आबादी को प्रकाशित करते हुए परानुग्रह हेतु प्रवृत्त होता है। अथवा, अपनी सहज शक्ति से स्वभावतः ईश्वर की सर्जनादि प्रवृत्ति होती है। जैसे क्रमशः वसन्त, ग्रीष्म आदि विभागों के रूप में काल अभिव्यक्त होने पर स्थावर जंगम भावो में विविध परिवर्तन का उद्भव स्वाभाविक होता है वैसे ही ईश्वर की सर्जन-पालन-विसर्जन शक्तियों की क्रमशः अभिव्यक्ति होने पर स्वभावतः प्राणिवर्ग के उद्भव-स्थिति और प्रलय निष्पन्न होते हैं।
प्रशस्तमति का यह निरूपण निरस्त हो जाता है क्योंकि यदि वास्तव में ईश्वर की चेष्टा परानुकम्पा के लिये ही होती तो वह सभी प्राणियों को एकान्त से सुखी ही बनाता, किसी दुःखी जीव का निर्माण ही नहीं करता। तथा, यदि वह अपनी स्वाभाविक शक्ति से सर्जनादि करता है तो पहले ही यह दूषण कहा है कि स्वभाव अक्षुण्ण होने से वह एक साथ ही सर्जन-विसर्जन कर देगा, क्रमशः क्यों करेगा ? जैसे कि कहा है - ____'यदि ईश्वर में निहित शक्ति प्रगट है तो वह एक साथ ही सर्जन-पालन-संहार कर देगा, सारे जगत् का निर्माण भी एक साथ करेगा। यदि ऐसा नहीं करता तो उस की शक्ति अप्रगट होने का मानना होगा।'
_ 'ईश्वर की शक्ति क्रमशः प्रगट होती है यह विधान भी असंगत है क्योंकि जिस की शक्ति क्रमशः व्यक्त होती है वह यदि (अव्यक्तशक्ति से) अपर है तब उन से उत्पन्न होने वाला भाव कैसे एक हो सकता है ?' ___वसन्तादि ऋतुओं के क्रम से काल की अभिव्यक्ति की जो बात प्रशस्तमति ने कही है वहाँ भी यही दोष है। यदि स्वाभाविक
है। यदि स्वाभाविक शक्ति प्रगट है तब एकसाथ ही वसन्तादि ऋत का संमिलन हो जायेगा। वास्तव में जैनमतानुसार काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है, पहले ही यह व्यवस्था प्रदर्शित की गयी है कि प्रतिक्षण विनाशी शीत-उष्णादि गुण-पर्यायों में परिणत होने वाले पदार्थों को ही कथंचित् 'काल' संज्ञा दी गयी है।
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