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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
प्रलयानुपपत्तिर्भवेत्। न च समर्थस्य दुःखकारणमधर्मादिकमपेक्ष्य कृपालोर्दुखितसत्त्वनिर्वर्त्तनं युक्तम् कृपापरतन्त्रतया दुःखप्रदे कर्मण्यवधा ( ? धी) रणोपपत्तेः । न हि कृपालवः परदुःखहेतुत्वमेवेच्छन्ति परदुःखवियोगेच्छयैव तेषां सर्वदा प्रवृत्तेः । न च क्रीड्यापि तत्र तस्य प्रवृत्तिर्युक्ता, क्रीडोत्पादेऽपि जगदुत्पादापेक्षया तस्याऽस्वातन्त्र्योपपत्तेः । जगदुत्पत्ति-स्थिति- प्र -प्रलयात्मकस्य विचित्रक्रीडोपायस्य तदुत्पत्तावपेक्षणात् । यदि विचित्रक्रीडोपायोत्पादने तस्य प्रागेव शक्तिः तदा युगपदशेषजगदुत्पत्ति-स्थिति-प्रलयान् विदध्यात्। अथादौ न तत्र शक्तिस्तदाऽशक्तावस्थाया अविशिष्टत्वात् क्रमेणापि न तान् विदध्यात् एकत्रैकस्य शक्ताऽशक्तत्वलक्षणविरुद्धधर्मद्वयाऽयोगात् । अयं च दोष ईश्वरवादिनामपि समान इति ।
‘“परानुग्रहार्थमीश्वरः प्रवर्त्तते यथा कश्चित् कृतार्थो मुनिरात्महिताऽहितप्राप्ति - परिहारार्थाऽसम्भवेऽपि का निर्माण भी तो विधाता जीवने किया होगा, पहले वैसे दुःखप्रद कर्मों का निर्माण करना और बाद में उन को क्षीण करने के लिये दुःखी जीवों का निर्माण करना इस में बुद्धिमत्ता कैसे होगी ?
दूसरी बात यह है कि सृष्टिनिर्माण के पहले तो कोई दयापात्र जीव ही नहीं थे, (वे तो बाद में रचे गये) तब विषय के अभाव में अनुकम्पा भी हो नहीं सकती। उस स्थिति में सृष्टिनिर्माण की प्रवृत्ति (अनुकम्पा के न होने से) कैसे उचित कही जाय ? यदि किसी प्रकार अनुकम्पाप्रेरित प्रवृत्ति का स्वीकार किया जाय तो देवसृष्टि के संहार की प्रवृत्ति अनुचित सिद्ध होगी क्योंकि देव तो सुखी जीव है, दयालु विधाता की सुखी जीवों के संहार के लिये प्रवृत्ति कैसे उचित होगी ? यह भी सोचने जैसा है कि जो दयालु है और शक्तिशाली भी है वह दुःखीजीवों के दुःखदायक पापकर्म का सहारा ले कर दुःखीजीवों के निर्माण की प्रवृत्ति करना कैसे चाहेगा ? वह तो दयालु और शक्तिशाली होने पर पहले उन दुःखदायक कर्मों को ही क्षीण करने की कोशीश करेगा। जो दयालु होते हैं वे किसी भी तरह अन्यों को दुःखी करने में निमित्त बनना पसंद नहीं करते, उन की प्रवृत्ति तो हर हमेश दूसरे लोगों के दुःखों को दूर करने की इच्छा से ही प्रेरित होती है ।
यदि विधाता सिर्फ खेल - खेल में ही सृष्टि निर्माण करता है तो यह उचित नहीं है क्योंकि तब उस की स्वतन्त्रता का लोप - प्रसंग होगा, क्योंकि उस को (अपने मनोरंजन के लिये या किसी के भी लिये) खेल करने की इच्छा है किन्तु वह सृष्टि के विना खेल करने को अशक्त है इस लिये सृष्टि निर्माण के सहयोग की अपेक्षा रखता है, अर्थात् क्रीडा निर्माण के लिये उस को क्रीडा के उपायभूत सृष्टि के उत्पत्ति, विनाश- स्थिति का मुँह देखना पडता है तो वह स्वतन्त्र कैसे ? यह भी सोचना पडेगा कि यदि उस विधाता जीव में क्रीडा के उपायभूत उत्पत्ति-स्थिति- प्रलय के उत्पादन में काम आने वाली शक्ति प्रारम्भ से ही होती है तब तो वह एक साथ ही सृष्टि के उत्पत्ति-स्थिति- प्रलय का निर्माण कर बैठेगा क्योंकि उत्पत्ति करने के काल में ही स्थिति और प्रलयनिर्माण की शक्ति अक्षुण्ण है। यदि प्रारम्भ में वैसी शक्ति नहीं होती, यानी उस काल में विधाता जीव की दशा अशक्त है तो बाद में भी अशक्त अवस्था तदवस्थ रहने के कारण; पहले उत्पत्ति, फिर स्थिति और उस के बाद प्रलय - इस प्रकार क्रमशः निर्माणक्रिया नहीं हो पायेगी । प्रारम्भकाल में अशक्तावस्था और बाद में स्थिति आदि के लिये सशक्तावस्था ऐसी विरुद्ध दो अवस्था का योग एक ही जीव में घट नहीं सकता । ध्यान में रहे कि ये सब दोष ईश्वरवादियों के पक्ष में भी समानरूप से संलग्न होते हैं ।
उत्थापन *
* प्रशस्तमति के मत का स्थापन प्रशस्तमति विद्वान यहाँ कहता है -
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ईश्वर सृष्टि के सर्जनादि में जो प्रवृत्ति करता है उस का एकमात्र प्रयोजन है परानुग्रह । उदा० कोई अतिशय
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