________________
पञ्चमः खण्डः - का० ५३
२३७ तथा, 'पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्' ( ) इत्यादि। ऊर्णनाभोऽत्र मर्कटको व्याख्यातः। अत्र सकल लोकस्थितिसर्ग-प्रलयहेतुतेश्वरस्येव पुरुषवादिभिः पुरुषस्येष्टा । विशेषस्तु समवायाद्यपरकारणसव्यपेक्ष ईश्वरो जगद् निर्वर्त्तयति, अयं तु केवल एव ।
अस्य चेश्वरस्येव जगद्धेतुताऽसंगता। तथाहि - पुरुषो जन्मिनां हेतुर्नोत्पत्तिविकलत्वतः। गगनांभोजवत् सर्वमन्यथा युगपद् भवेत् ।। ( )
किञ्च, प्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्तिः प्रयोजनवत्तया व्याप्तेति किं प्रयोजनमुद्दिश्याऽयं जगत्करणे प्रवर्त्तते ? नेश्वरादिप्रेरणात् अस्वातन्त्र्यप्रसक्तेः। न परानुग्रहार्थम् अनुकम्पया दुःखितसत्त्वनिर्वर्तनानुपपत्तेः। न तत्कर्मक्षयार्थं दुःखितसत्त्वनिर्माणे प्रवृत्तिः, तत्कर्मणोऽपि तत्कृतत्वेन तत्प्रक्षयार्थं तन्निर्माणप्रवृत्तावप्रेक्षापूर्वकारिताऽऽपत्तेः। न च प्राक् सृष्टेरनुकम्पनीयसत्त्वसद्भाव इति निरालम्बनाया अनुकम्पाया अयोगात् नाऽतोऽपि जगत्करणे प्रवृत्तिर्युक्ता। न चानुकम्पातः प्रवृत्तौ सुखिसत्त्वप्रक्षयार्थं प्रवृत्तिर्युक्तेति देवादीनां
जैसे मकडी-जन्तु तन्तुजाल की रचना करता है, चन्द्रकान्त मणि जल-सर्जन करता है, प्लक्ष का वृक्ष अंकुरों को जन्म देता है, वैसे ही समग्र सृष्टि को जीव ही जन्म देता है।' ___मूल संस्कृत श्लोक में 'ऊर्णनाभ' शब्द है उस का अर्थ है मकडी-जन्तु । तथा, वेदों में कहा है कि 'यहाँ जो कुछ भी भूत और भावि है वह सब पुरुष ही है।' ___ एक समझने की बात है कि ईश्वरकर्तृत्ववादी ‘समग्र लोक का सर्जन-विसर्जन-पालनहार ईश्वर है' ऐसा मानते हैं और यहाँ पुरुषकारणतावादी ईश्वर के स्थान में पुरुष को मानता है, किन्तु फर्क इतना है कि ईश्वरवादी मानते हैं कि समवाय-परमाणु आदि कारण के सहयोग से ईश्वर सृष्टिरचना करता है जब कि पुरुष तो विना किसी सहयोग ही सृष्टि रचता है।
* एकमात्रपुरुषकारणवाद की समालोचना * जैसे ईश्वरकर्तृत्ववाद असंगत है वैसे “एकमात्र जीव ही जगत् का हेतु है' यह वाद भी संगत नहीं है। देखिये किसीने कहा है -
___ 'स्वयं उत्पत्तिशून्य (सत्ताशून्य) होने से जीव जीवसृष्टि का हेतु नहीं माना जा सकता। जैसे, आकाशकुसुम उत्पत्तिरहित होने से किसी का हेतु नहीं होता। यदि उत्पत्तिरहित होने पर भी वह जीवसृष्टि रच सकता है तो अन्य कोई विशेष कारण न होने से समग्र जीवसृष्टि को एक साथ ही पैदा कर बैठेगा।' तात्पर्य, जीव ही एकमात्र सर्वत्र कारण नहीं होता।
* एकमात्र पुरुषकारणतावाद में प्रयोजन की अनुपपत्ति * यह भी ज्ञातव्य है कि बुद्धिमत्तापूर्वक काम करने वालों की प्रवृत्ति सप्रयोजन ही होती है। अब एक मात्र जीव को ही सृष्टिविधाता माननेवालों से यह प्रश्न है कि विधाता जीव को सृष्टिरचना करने में क्या प्रयोजन है ? यदि ईश्वरादि की प्रेरणा से विना प्रयोजन भी वह प्रवृत्त होगा तो उसकी स्वतन्त्रता का भंग हो जायेगा। यदि कहें कि – 'वह इतना अनुकम्पाशील है कि सिर्फ अन्य जीवों के ऊपर कृपा करने के लिये ही प्रवृत्त होता है।' – तो विधाता की दुखित जीवों के निर्माण की प्रवृत्ति असंगत बन जायेगी क्योंकि दयाप्रेरित निर्माण दुखी करने वाला नहीं हो सकता। यदि कहा जाय – 'उन जीवों के दुःखप्रद कर्म दुःखभोग से क्षीण करने के लिये दुःखी जीवों के निर्माण की प्रवृत्ति वाजीब है' – तो यह ठीक नहीं क्योंकि उन कर्मों
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org