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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
स्वतन्त्रं कर्म जगद्वैचित्र्यकारणमुपपद्यते तस्य कर्त्रधीनत्वात् । न चैकस्वभावात् ततो जगद्वैचित्र्यमुपपत्तिमत् कारणवैचित्र्यमन्तरेण कार्यवैचित्र्याऽयोगात् वैचित्र्ये वा तदेककार्यताप्रच्युतेः, अनेकस्वभावत्वे च कर्मणः नाममात्रनिबन्धनैव विप्रतिपत्तिः, पुरुष-काल-स्वभावादेरपि जगद्वैचित्र्यकारणत्वेनाऽर्थतोऽभ्युपगमात्। न च तेन चेतनवताऽनधिष्ठितमचेतनत्वात् वास्यादिवत् कर्म प्रवर्त्तते । अथ तदधिष्ठायकः पुरुषोऽभ्युपगम्यते न तर्हि कर्मैकान्तवादः, पुरुषस्यापि तदधिष्ठायकत्वेन जगद्वैचित्र्यकारणत्वोपपत्तेः । न च केवलं किञ्चिद् वस्तु नित्यमनित्यं वा कार्यकृत् सम्भवतीत्यसकृत् प्रतिपादितम् । तन्न कर्मैकान्तवादोऽपि युक्तिसंगतः । * एकान्तपुरुषकारणवादिमतस्थापना
अन्यस्त्वाह
‘पुरुष एवैकः सकललोकस्थिति - सर्ग - प्रलयहेतुः प्रलयेऽपि अलुप्तज्ञानातिशयशक्तिः ' इति । तथा चोक्तम् -
ऊर्णनाभ इवांशूनां चन्द्रकान्तः इवाऽम्भसाम् । प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मिनाम्।। इति।।
* एकान्त कर्मकारणवाद युक्तिसंगत नहीं *
एकान्त कर्मवादियों का यह मत गलत है । प्रत्यक्ष से जो दिखाई पडता है कि मिट्टी के घडे का उत्पादन कुम्हार करता है, फिर भी उसे कारण न मान कर, अदृश्य पदार्थ को ही ( एक मात्र ) कारण मानने की कल्पना करने जायेंगे तो उस अदृश्य पदार्थ (कर्म) के लिये भी अन्य अन्य अदृश्य कारणों की कल्पना करते करते अन्त ही नहीं पायेंगे, फलस्वरूप किसी भी भाव के नियत कारण की अवस्था नहीं हो पायेगी । दूसरी बात यह है कि कर्म अकेला स्वतन्त्ररूप से सारे जगत् की विचित्रताओं का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि वह भी कर्त्ता को पराधीन होता है । तदुपरांत, कर्म को यदि एकस्वरूप ही मानेंगे तो वह नहीं बन सकेगा, क्योंकि जगत् की विचित्रता की संगति के लिये कर्म को भी विचित्रस्वभाव ही मानना होगा । कर्म विचित्रस्वभाव मानेंगे तो उस की विचित्रता लिये अन्य किसी को कारण मानना पडेगा, फलतः 'कर्म ही कारण है' यह सिद्धान्त डूब जायेगा । यदि कर्म को विचित्रस्वभाव मान लेंगे तो उस विचित्रता की उपपत्ति पुरुषादिभेद से ही सम्पन्न हो सकती है, अर्थात् पुरुष, काल, स्वभाव, नियति को भी जगत् की विचित्रता के प्रति कारणता सिद्ध हो जायेगी । ऐसी स्थिति में कर्मविचित्रता को कारण कहना अथवा कर्मपुरुषादि के समवाय को कारण कहना इस में कोई फर्क नहीं पडता, सिर्फ नाममात्र का फर्क रहता है ।
यह भी ध्यान में रहे कि जैसे चेतन से अनधिष्ठित कुठारादि जड पदार्थ स्वयं छेदन क्रिया में संलग्न नहीं हो सकते, ऐसे ही जड होने से कर्म भी जब तक चेतना से अधिष्ठित नहीं होगा तब तक किसी कार्य में योगदान नहीं कर सकेगा। यदि कर्म के अधिष्ठाता के रूप में पुरुष (जीव ) को स्वीकार करेंगे तो एकान्त कर्म - कारणतावाद समाप्त हो जायेगा, क्योंकि कर्म के अधिष्ठाता के रूप में विश्वविचित्रता के प्रति अब आत्मा की कारणता भी युक्तिसंगत सिद्ध होगी। पहले कई बार कह दिया है कि दूसरे के सहयोग के विना कोई भी अकेला कुछ भी कर नहीं सकता, चाहे वह नित्य हो या अनित्य । निष्कर्ष, एकान्तकर्मकारणतावाद भी युक्तिसंगत नहीं है । * एकान्त पुरुषमात्रकारणवादिमत का निरूपण
पुरुषकारणवादियों का कहना है कि समग्र लोकवर्त्ती पदार्थों की उत्पत्ति-स्थिति- विनाश का एक मात्र हेतु पुरुष (जीव ) ही है । समग्र पृथ्वी का प्रलय हो जाय तब भी जीवात्मा की सातिशय ज्ञानशक्ति लुप्त नहीं होती । कहा गया है
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