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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ५३ २३५ यथा यथा पूर्वकृतस्य कर्मणः फलं निधानस्थमिवावतिष्ठते । तथा तथा तत्प्रतिपादनोद्यता प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्त्तते ।। ( ) तथा च - कर्मणा युक्त एव सर्वो ह्युत्पद्यते नरः। स तथाऽऽकृष्यते तेन न यथा स्वयमिच्छति ।। ( ) तथाहि – समानमीहमानानां समानदेश-काल-कुलाऽऽकारादिमतामर्थप्राप्त्यप्राप्ती नाऽनिमित्ते युक्ते अनिमित्तस्य देशादिप्रतिनियमाऽयोगात् । न च परिदृश्यमानकारणप्रभवे, तस्य कार्यस्यापि तद्रूपतापत्तेः भेदाऽभेदव्यतिरिक्तस्य तस्यासत्त्वात् । ततो यन्निमित्ते एते तद् दृष्टकारणव्यतिरिक्तमदृष्टं कारणं कर्मेति। असदेतत् – कुलालादेर्घटादिकारणत्वेनाध्यक्षतः प्रतीयमानस्य परिहारेणाऽपराऽदृष्टकारणताप्रकल्पनायां तत्परिहारेणापरापराऽदृष्टकारणकल्पनयाऽनवस्थाप्रसङ्गतः क्वचिदपि कारणप्रतिनियमानुपपत्तेः। न च * कर्म ही एकमात्र कारण - कर्मवादी * कर्ममात्र कारण वादियों का कहना है कि – जन्म-जन्मान्तर में संचित कर्म ही सारे जगत् के वैविध्य का एक मात्र कारण है और वही इष्ट या अनिष्ट फलों का सम्पादक है। कहा है - ___“मानों कि निधानगत हो इस ढंग से पूर्वसंचित कर्मों का फल जैसे जैसे उपस्थित होता रहता है वैसे वैसे उस के अनुसरण के लिये सज्ज बुद्धि भी प्रवृत्त होती रहती है, उदा० हस्त में रहा हुआ दीप ।' तात्पर्य यह है कि हस्तगत दीप हस्त स्थिर रहने पर स्थिर रहता है और हस्त गति करता है तो प्रदीप भी गति करता है। इस तरह बुद्धि भी लगभग कर्मानुसारिणी होती है। निधान के रूप में भूमिगत धन क्वचित् क्वचित् अकस्मात् बाहर निकल आता है वैसे ही आत्मगत कर्म भी कब यकायक उदय में आ पडता है यह हम जान नहीं सकते। यह भी कहा गया है कि - _ 'हर कोई मनुष्य अपने कर्मों को साथ लेकर ही जन्म लेता है। जिस ओर वह स्वयं जाना नहीं चाहता उस ओर उस के कर्म उस को खिंच कर भी ले जाता है।' इस से भी कर्म की कारणता फलित होती है। स्पष्ट देखिये - चैत्र और मैत्र ये दो मित्र एक ही देशकाल में और एक ही कुल में, जुडवा बन्धु की तरह समानाकार मुखादिवाले उत्पन्न हुए हैं। दोनों ही समान चीज की अभिलाषा करते हैं। एक को वह चीज अतर्कित प्राप्त हो जाती है और दूसरे को अति आयास करने पर भी नहीं मिलती। ऐसा जो भेदभाव है वह विना कारण नहीं होना चाहिये। विना कारण होने वाले भावों में नियतदेश-नियतकाल का बन्धन नहीं रहेगा। ऐसा भी नहीं है कि यह भेदभाव किसी दृष्टिगत कारण से होता हो, क्योंकि दृष्टिगोचर होने वाले जितने भी कारण हैं वे तो यहाँ दोनों के लिये समानरूप से प्राप्त हैं। यदि कारण एक-सा ही हो तो परिणाम भिन्न भिन्न नहीं हो सकता, अन्यथा भिन्न भिन्न परिणाम विना कारण होता है ऐसा स्वीकारना पडेगा। यदि परिणाम भेद को विना कारण स्वीकार करेंगे तो परिणाम (कार्य) को भी विना कारण स्वीकार करना होगा, क्योंकि परिणाम भी तो कहीं भेदात्मक और कहीं अभेदात्मक हो सकता है. तीसरा कोई प्रकार उस का नहीं है जिससे कि उस को विना कारण माना जा सके। इस से यह निष्कर्ष फलित होता है कि एक को अतर्कित अर्थप्राप्ति और दूसरे को अप्राप्ति ऐसा भेदभाव दृष्टकारणों से अतिरिक्त ही किसी अदृष्टकारण से फलित होता है जिस को 'कर्म' कहा जाता है। वही एक सर्व घटनाओं के पीछे कारण है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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